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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वयण-निद्देसे चिट्ठति, तं जहा–वेसमणकाइया ति वा, वेसमण-देवयकाइया ति वा, सुवण्णकुमारा सुवण्णकुमारीओ, दीवकुमारा दीवकुमारीओ, दिसाकुमारा दिसाकुमारीओ, वाणमंतरा वाणमंतरीओ, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया जाव चिटुंति।
[७-२] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज की आज्ञा, सेवा (उपपात-निकट) वचन और निर्देश में ये देव रहते हैं। यथा-वैश्रमणकायिक, वैश्रमणदेवकायिक, सुवर्णकुमारसुवर्णकुमारियाँ, द्वीपकुमार-द्वीपकुमारियाँ, दिक्कुमार-दिक्कुमारियाँ, वाणव्यन्तर देव-वाणव्यन्तर देवियाँ, ये और इसी प्रकार के अन्य सभी देव, जो उसकी भक्ति, पक्ष और भृत्यता (या भारवहन) करते हैं, उसकी आज्ञा आदि में रहते हैं।
[३]जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाइंइमाइंसमुप्पज्जति,तं जहा–अयागरा इवा, तउयागरा इवा, तंबयागरा इ वा, एवं सीसागरा इ वा, हिरण्ण०, सुवण्ण०, रयण, वयरागरा इ वा, वसुधारा ति वा, हिरण्णवासा ति वा, सुवण्णवासा ति वा, रयण०, वइर०, आभरण० पत्त०, पुण्फ०, फल०, बीय०, मल्ल०, वण्ण०, चुण्ण०, गंध०, वत्थवासा इवा, हिरण्णवुट्ठी इवा, सु०, र०, व०, आ०, प०, पु०, फ०, बी०, म०, व०, चुण्ण०, गंधवुट्ठी०, वत्थवुट्ठी ति वा, भायणवुट्ठी ति वा, खीरवुट्ठी ति वा, सुकाला ति वा, देक्काला ति वा, अप्पग्घा ति वा, महग्घा ति वा, सुभिक्खा ति वा, दुभिक्खा ति वा, कयविक्कया ति वा, सन्निहि ति वा, सन्निचया ति वा, निही ति वा, णिहाणा ति वा चिरपोराणाइ वा, पहीणसामिया ति वा, पहीणसेतुया ति वा, पहीणमग्गाणि वा, पहीणगोत्तागाराइ वा, उच्छन्नसामिया ति वा उच्छन्नसेतुया ति वा, उच्छन्नगोत्तागारा ति ता सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु नगर-निद्धमणेसु सुसाण-गिरि-कंदर-संति-सेलोवट्ठाण-भवणगिहेसु सन्निक्खित्ताई चिट्ठति, ण ताई सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो अण्णायाइं अदिट्ठाई असुयाई अविनायाई, तेसिं वा वेसमणकाइयाणं देवाणं।
[७-३] जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मंदरपर्वत से दक्षिण में जो ये कार्य उत्पन्न होते हैं, जैसे कि लोहे की खाने, रांगे की खानें, ताम्बे की खानें, तथा शीशे की खानें, हिरण्य (चांदी) की, सुवर्ण की, रत्न की और वज्र की खाने, वसुधारा, हिरण्य की, सुवर्ण की, रत्न की, आभरण की, पत्र की, पुष्प की, फल, की, बीज की, माला की, वर्ण की, चूर्ण की, गन्ध की और वस्त्र की वर्षा, भाजन (बर्तन) और क्षीर की वृष्टि, सुकाल, दुष्काल, अल्पमूल्य (सस्ता), महामूल्य (महंगा), सुभिक्ष (भिक्षा की सुलभता), दुर्भिक्ष (भिक्षा की दुर्लभता), क्रय-विक्रय (खरीदना-बेचना) सन्निधि (घी, गुड आदि का संचय), सन्निचय (अन्न आदि का संचय), निधियाँ (खजाने-कोष), निधान (जमीन में गड़ा हुआ धन), चिर-पुरातन (बहुत पुराने), जिनके स्वामी समाप्त हो गए, जिनकी सारसम्भाल करने वाले नहीं रहे, जिनकी कोई खोजखबर (मार्ग) नहीं है, जिनके स्वामियों के गोत्र और आगार (घर) नष्ट हो गए जिनके स्वामी उच्छिन्न (छिन्न-भिन्न) हो गए, जिनकी सारसंभाल करने वाले छिन्न-भिन्न हो गए, जिनके स्वामियों के गोत्र, और घर तक छिन्नभिन्न हो गए, ऐसे खजाने शृङ्गाटक (सिंगाड़े के आकार वाले) मार्गों में, त्रिक (तिकोने मार्ग), चतुष्क (चौक), चत्वर, चतुर्मुख एवं महापथों, सामान्य मार्गों, नगर के गन्दे