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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दुब्भूया ति वा, कुलरोगा ति वा, गामरोगा तिवा, मंडलरोगा तिवा, नगररोगा तिवा, सीसवेयणा इ वा, अच्छिवेयणा इ वा, कण्ण-नह-दंतवेयणा इ वा, इंदग्गहा इ वा, खंदग्गहा इ वा, कुमारग्गहा०, जक्खग्ग०, भूयग्ग०, एगाहिया ति वा, बेहिया ति वा, तेहिया ति वा, चाउत्थया ति वा, उव्वेयगा ति वा, कासा०,,खासा इवा, सासा ति वा, सोसा ति वा, जरा इवा, दाहा० कच्छकोहा ति वा, अजीरया, पंडुरोया, अरिसा इ वा, भगंदला इ वा, हितयसूला ति वा, मत्थयसू०, जोणिसू०, पाससू०, कुच्छिसू०, गाममारीति वा, नगर०,खेड०, कब्बड०, दोणमुह०, मंडब०, पट्टण०, आसम०, संवाह० सन्निवेसमारीति वा, पाणक्खया, धणक्खया, जणक्खया, कुलक्खया, वसणब्भूया अणारिया जे यावन्ने तहप्पगारा णं ते सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो अण्णाया०५, तेसिं वा जमकाइयाणं देवाणं।
__[५-३] जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत से दक्षिण में जो ये कार्य समुत्पन्न होते हैं, यथा—डिम्ब (विघ्न), डमर (राज्य में राजकुमारादि द्वारा कृत उपद्रव), कलह (जोर से चिल्ला-चिल्लाकर झगड़ा करना), बोल (अव्यक्त अक्षरों की ध्वनियाँ),खार (परस्पर मत्सर), महायुद्ध, (अव्यवस्थित महारण), महासंग्राम (चक्रव्यूहादि से युक्त व्यवस्थित युद्ध), महाशस्त्रनिपात अथवा इसी प्रकार महापुरुषों की मृत्यु, महारक्तपात, दुर्भूत (मनुष्यों और अनाज आदि को हानि पहुँचाने वाले दुष्ट जीव), कुलरोग (वंश-परम्परागत पैतृक रोग), ग्राम-रोग, मण्डलरोग (एक मण्डल में फैलने वाली बीमारी), नगररोगं, शिरोवेदना (सिरदर्द), नेत्रपीड़ा, कान, नख और दांत की पीड़ा, इन्द्रग्रह स्कन्द्रग्रह, कुमारग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह, एकान्तर ज्वर (एकाहिक), द्वि-अन्तर (दूसरे दिन आने वाला बुखार), तिजारा (तीसरे दिन आने वाला ज्वर), चौथिया (चौथे दिन आने वाला ज्वर), उद्वेजक (इष्टवियोगादिजन्य उद्वेग दिलाने वाला काण्ड, अथवा लोकोद्वेगकारी चोरी आदि काण्ड), कास (खांसी), श्वास, दमा, बलनाशक ज्वर, (शोष), जरा (बुढ़ापा), दाहज्वर, कच्छ-कोह (शरीर के कक्षादि भागों में सडाँध), अजीर्ण, पाण्डुरोग (पीलिया), अर्शरोग (मस्सा-बवासीर), भगंदर, हृदयशूल (हृदय-गति-अवरोधक पीड़ा), मस्तकपीड़ा, योनिशूल, पार्श्वशूल (कांख या बगल की पीड़ा), कुक्षि (उदर) शूल, ग्राममारी, नगरमारी, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पट्टण, आश्रम, सम्बाध और सन्निवेश, इन सबकी मारी (मृगीरोगमहामारी), प्राणक्षय, धनक्षय, जनक्षय, कुलक्षय, व्यसनभूत (विपत्तिरूप) अनार्य (पापरूप), ये और इसी प्रकार के दूसरे सब कार्य देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल—यम महाराज से अथवा उसके यमकायिक देवों से अज्ञात (अनुमान से अज्ञात), अदृष्ट, अश्रुत, अविस्मृत, (या अचिन्त्य) और अविज्ञात (अवधि आदि की अपेक्षा) नहीं हैं।
[४] सक्कस्सणंदेविंदस्स देवरणोजमस्स महारण्णो इमे देवा अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तं जहा
अंबे १ अंबरिसे चेव २ सामे ३ सबले त्ति यावरे ४ । रुद्दोवरुद्दे ५-६ काले य ७ महाकाले त्ति यावरे ८ ॥१॥ असी य ९ असिपत्ते १० कुंभे ११ वालू १२ वेतरणी ति य १३ । खरस्सरे १४ महाघोसे १५ एए पन्नसाऽऽसिया ॥२॥ [५-४] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल—यम महाराज के देव अपत्यरूप से अभिमत