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________________ ३६८] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कि न तो यह राजगृह नगर है, और न यह वाराणसी नगरी है, तथा न ही इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपदवर्ग है, किन्तु यह मेरी ही वीर्यलब्धि है, वैक्रियलब्धि है और अवधिज्ञानलब्धि है; तथा यह मेरे द्वारा उपलब्ध, प्राप्त एवं अभिमुखसमागत ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम है। उसका वह दर्शन अविपरीत होता है। इसी कारण से, हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि वह अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार तथाभाव से जानता-देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता-देखता। विवेचन–अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और उसका दर्शन–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. ६ से १० तक) में मायी मिथ्यादृष्टि अनगार द्वारा कृत विकुर्वणा सम्बन्धी सूत्रों की तरह अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार द्वारा कृत विकुर्वणा और उसके द्वारा कृत रूपों को जानने-देखने के सम्बन्ध में प्ररूपण किया गया है। निष्कर्ष-वाराणसी नगरी में स्थित अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार, अपनी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि से राजगृह नगर की विकुर्वणा अथवा राजगृहस्थित तथारूप अनगार वाराणसी नगरी की विकुर्वणा, या राजगृह और वाराणसी के बीच में एक महान् जनपदसमूह की विकुर्वणा करके तद्गत रूपों को तथाभाव (यथार्थभाव) से जान-देख सकता है, क्योंकि उसके मन में ऐसा अविपरीत (सम्यग्) ज्ञान होता है कि-(१) वाराणसी में रहा हुआ मैं राजगृह की विकुर्वणा करके तद्गतरूपों को जान-देख रहा हूँ; (२) राजगृह में रहा हुआ मैं वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके तद्गतरूपों को देख रहा हूँ, (३) तथा न तो यह राजगृह है, और न यह वाराणसी है, और न ही इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपदवर्ग है; अपितु मेरी ही वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि है। और है—मेरे ही द्वारा अर्जित, प्राप्त, सम्मुख-सम्मानीत ऋद्धि' आदि। . भावितात्मा अनगार द्वारा ग्रामादि के रूपों का विकुर्वण-सामर्थ्य - ११. अणगारे णं भंते! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं गामरूवं वा नगररूवं वा जाव सन्निवेसरूवं वा विकुवित्तए ? णो इणढे समठे। [११ प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना, एक बड़े ग्रामरूप की, नगररूप की, यावत्-सन्निवेश के रूप की विकुर्वणा कर सकता है ? ११ उ.] गौतम! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। १२. एवं बितिओ वि आलावगो, णवरं बाहिरए पोग्गले परियादित्ता पभू। [१२] इसी प्रकार दूसरा आलापक भी कहना चाहिए, किन्तु इसमें विशेष यह है कि बाहर के (वैक्रियक) पुद्गलों को ग्रहण करके वह अनगार, उस प्रकार के रूपों की विकुर्वणा कर सकता है। १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. १६७-१६८ (ख) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणसहित) खण्ड-२, पृ. १०३ से १०६ तक २. 'जाव' शब्द यहाँ निम्नोक्त पाठ का सूचक है "निगमरूवं वा, रायहाणिरूवं वा, खेडरूवं वा, कब्बडरूवं वा, मडंबरूवं वा, दोणमुहरूवं वा पट्टणरूवं वा, आगररूवं वा, आसमरूवं वा, संवाहरूवं वा"-भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक १९३।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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