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तृतीय शतक : उद्देशक-६]
[३६९ १३. अणगारे णं भंते! भावियप्पा केवतियाइं पभू गामरूवाइं विकुवित्तए ?
गोयमा! से जहानामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा तं चेव जाव विकुव्विंसुवा ३। एवं जाव सन्निवेसरूवं वा।
[१३ प्र.] भगवन्! भावितात्मा अनगार, कितने ग्रामरूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ?
[१३ उ.] गौतम! जैसे युवक युवती का हाथ अपने हाथ से दृढ़तापूर्वक पकड़ कर चलता है, इस पूर्वोक्त दृष्टान्तपूर्वक समग्र वर्णन को कहना चाहिए; (अर्थात् वह इस प्रकार के रूपों से सारे जम्बूद्वीप को ठसाठस भर सकता है) यावत्-यह उसका केवल विकुर्वण-सामर्थ्य है, मात्र विषयसामर्थ्य है, किन्तु इतने रूपों की विकुर्वणा कभी की नहीं, (करता नहीं और करेगा भी नहीं।) इसी तरह से यावत् सन्निवेशरूपों (की विकर्वणा) पर्यन्त कहना चाहिए।
विवेचन भावितात्मा अनगार द्वारा ग्रामादि के रूपों का विकुर्वणसामर्थ्य प्रस्तुत तीनों सूत्रों में भावितात्मा अनगार द्वारा ग्राम, नगर आदि से लेकर सन्निवेश तक के रूपों की विकुर्वणा करने के सामर्थ्य के सम्बन्ध में प्ररूपणा है। चमरेन्द्र आदि इन्द्रों के आत्मरक्षक देवों की संख्या का निरूपण
१४. चमरस्स णं भंते! असुरिदस्स असुररण्णो कति आयरक्खदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ?
गोयमा! चत्तारि चउसट्ठिओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। ते णं आयरक्खा० वण्णओ' जहा रायप्पसेणइज्जे।
[१४ प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के कितने हजार आत्मरक्षक देव हैं ?
[१४ उ.] गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के चौसठ हजार के चार गुने अर्थात् —दो लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देव हैं । यहाँ आत्मरक्षक देवों का वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए।
१५. एवं सव्वेसिं इंदाणं जस्स जत्तिया आयरक्खा ते भाणियव्वा। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
॥ तइयसए छट्टो उद्देसो समत्तो॥
चमरेन्द्र आदि इन्द्रों के आत्मरक्षक देवों का वर्णन इस प्रकार है-"सन्नद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगेवेज्जा बद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा तिणयाई तिसंधियाई वयरामयकोडीणि धणूई अभिगिज्झ पयओ परिमाइयकंडकलावा नीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो एवं चारुचावचम्म-दंड-खग्ग-पासपाणिणो नील पीय-रत्त-चारुचाव-चम्म-दंड-खग्ग-पासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूया इव चिट्ठति।"
-भगवतीसूत्र अ. वृत्तिडपत्रांक १९३ में समुद्धृत।