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________________ ३६४] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाराणसी नगरी में रहे हुए मैंने राजगृहनगर की विकुर्वणा की है और विकुर्वणा करके मैं तद्गत (वाराणसी) के रूपों को जानता-देखता हूँ। इस प्रकार उसका दर्शन विपरीत होता है। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वह तथाभाव से नहीं जानता-देखता, किन्तु अन्यथाभाव से जानता-देखता है। ३. अणगारे णं भंते! भावियप्पा मायी मिच्छट्ठिी जाव रायगिहे नगरे समोहए, समोहण्णित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाइं जाणइ पासइ ? हंता, जाणइ पासइ। तं चेव जाव तस्स णं एवं होइ–एवं खलु अहं वाणारसीए नगरीए समोहए, २ रायगिहे नगरे रूवाई जाणामि पासामि, से से दंसणे विवच्चासे भवति, से तेणढेणं जाव अन्नहाभावं जाणइ पासइ। [३ प्र.] भगवन् ! वाराणसी में रहा हुआ मायी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार, यावत् राजगृह नगर की विकुर्वणा करके वाराणसी के रूपों को जानता और देखता है ? [३ उ.] हाँ, गौतम! वह उन रूपों को जानता और देखता है। यावत् —उस साधु के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि राजगृह नगर में रहा हुआ मैं वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके तद्गत (राजगृह नगर के) रूपों को जानना और देखता हूँ। इस प्रकार उसका दर्शन विपरीत होता है। इस कारण से, यावत् वह अन्यथाभाव से जानता-देखता है। ४. अणगारे णं भंते! भावियप्पा मायी मिच्छद्दिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए विभंगणाणलद्धीए वाणारसिं नगरि रायगिहं च नगरं अंतरा य एगं महं जणवयवग्गं समोहए, २ वाणारसिं नगरि रायगिहं च नगरं तं च अंतरा एगं महं जणवयवग्गं जाणति पासति ? हंता, जाणति पासति। [४ प्र.] भगवन् ! मायी, मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार अपनी वीर्यलब्धि से, वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी और राजगृह नगर के बीच में एक बड़े जनपद-वर्ग (देशसमूह) की विकुर्वणा करे और वैसा करके क्या उस (वाराणसी और राजगृह के बीच विकुर्वित) बड़े जनपद वर्ग को जानता और देखता है ? [४ उ.] हाँ, गौतम ! वह (उस विकुर्वित बड़े जनपद-वर्ग को) जानता और देखता है। ५.[१] से भंते! किं तहाभावं जाणइ पासइ ? अन्नहाभावं जाणइ पासइ ? गोयमा! णो तहाभावं जाणति पासइ, अन्नहाभावं जाणइ पासइ । [५-१ प्र.] भगवन्! क्या वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से जानता-देखता है, अथवा अन्यथा भाव से जानता-देखता है ? [५-१ उ.] गौतम! वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से नहीं जानता-देखता; किन्तु अन्यथाभाव से जानता-देखता है। [२] से केणद्वेणं जाव पासइ ? गोयमा! तस्स खलु एवं भवति एस खलु वाणारसी नगरी, एस खलु रायगिहे नगरे, एस खलु अंतरा एगे महं जणवयवग्गे, नो खलु एस महं वीरियलद्धी वेउव्वियलद्धी विभंगनाणलद्धी इड्डी जुती जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए, से
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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