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तृतीय शतक : उद्देशक-६]
[३६५ से दंसणे विवच्चासे भवति, से तेणठेणं जाव पासति ।
[५-२ प्र.] भगवन् ! वह उस जनपदवर्ग को अन्यथाभाव से यावत् जानता-देखता है, इसका क्या कारण है ?
[५-२ उ.] गौतम! उस अनगार के मन में ऐसा विचार होता है कि यह वाराणसी नगरी है, यह राजगृह नगर है। तथा इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपदवर्ग है। परन्तु यह मेरी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि या विभंगज्ञानलब्धि नहीं है; और न ही मेरे द्वारा उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (सम्मुख लायी हुई) यह ऋद्धि, द्युति, यश, बल और पुरुषकार पराक्रम है। इस प्रकार का उक्त अनगार का दर्शन विपरीत होता है। इस कारण से, यावत् वह अन्यथाभाव से जानता-देखता है।
विवेचनमायी मिथ्यादृष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और उसका दर्शन–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. १ से ५ तक) में मायी, मिथ्यादृष्टि, भावितात्मा अनगार द्वारा वीर्य आदि तीन लब्धियों में से एक स्थान में रह कर दूसरे स्थान की विकुर्वणा करने और तद्गतरूपों को जानने-देखने के सम्बन्ध में चर्चा की गई है।
निष्कर्ष राजगृह नगर में स्थित मायी मिथ्यादृष्टि अनगार, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी की विकुर्वणा, अथवा वाराणसीस्थित तथाकथित अनगार राजगृह नगर की विकुर्वणा या वाराणसी और राजगृह के बीच में विशाल जनपदवर्ग की विकुर्वणा करके, तद्गतरूपों को जान-देख सकता है, किन्तु वह जानता-देखता है—अन्यथाभाव से, यथार्थभाव से नहीं; क्योंकि उसके मन में ऐसा विपरीत दर्शन होता है कि—(१) वाराणसी में रहे हुए मैंने राजगृह की विकुर्वणा की है और मैं तद्गतरूपों को जान देख रहा हूँ, (२) अथवा राजगृह में रहा हुआ मैं वाराणसी की विकुर्वणा करके तद्गतरूपों को जान-देख रहा हूँ, (३) अथवा यह वाराणसी है, यह राजगृह है, इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपदवर्ग है, यह मेरी वीर्यादिलब्धि नहीं, न ऋद्धि आदि है ।
मायी, मिथ्यादृष्टि , भावितात्मा अनगार की व्याख्या—अनगार-गृह वासत्यागी, भावितात्मा स्वसिद्धान्त (शास्त्र) में उक्त शम, दम आदि नियमों का धारक। मायी का अर्थ यहाँ उपलक्षण से क्रोधादि कषायों वाला है। इस विशेषण वाला सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है, इसलिए यहाँ 'मिथ्यादृष्टि' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ है—अन्यतीर्थिक मिथ्यात्वी साधु । यही कारण है कि मिथ्यात्वी होने से उसका दर्शन विपरीत होता है, और वह अपने द्वारा विकुर्वित रूपों को विपरीत रूप में देखता है। उसका दर्शन विपरीत यों भी है कि वह वैक्रियकृत रूपों को स्वाभाविक रूप मान लेता है तथा जैसे दिङ्मूढ़ मनुष्य पूर्व दिशा को भी पश्चिम दिशा मान लेता है, उसी तरह मिथ्यादृष्टि अनगार भी दूसरे रूपों की अन्यथा कल्पना कर लेता है। इसलिए उसका अनुभव, दर्शन और क्षेत्र सम्बन्धी विचार विपरीत होता है।
लब्धित्रय का स्वरूप—यहाँ जो तीन लब्धियाँ बताई गई हैं, वे इस प्रकार हैं-वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि। वीर्यादि तीनों लब्धियाँ विकुर्वणा करने की मुख्य साधन हैं। इनसे
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ.१६५ से १६७ तक २. (क) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद सहित) खण्ड-२, पृ.१०४
(ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १९३