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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हंता, पभू।
[१३-१ प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, एक बड़े अश्व के रूप का अभियोजन करके अनेक योजन तक जा सकता है ?
[१३-१ उ.] हाँ, गौतम! वह वैसा करने में समर्थ है। [२] से भंते! किं आयड्डीए गच्छति, परिड्डीए गच्छति ? गोयमा! आयड्डीए गच्छइ, नो परिड्डीए गच्छइ।
[१३-२ प्र.] भगवन्! क्या वह (इतने योजन तक) आत्मऋद्धि से जाता है या पर-ऋद्धि से जाता है ?
[१३-२ उ.] गौतम! वह आत्म-ऋद्धि से जाता है, परऋद्धि से नहीं जाता। [३] एवं आयकम्मुणा, नो परकम्मुणा। आयप्पयोगेणं, नो परप्पयोगेणं। .
[१३-३] इसी प्रकार वह अपनी क्रिया (स्वकर्म) से जाता है, परकर्म से नहीं; आत्म्प्रयोग से जाता है, किन्तु परप्रयोग से नहीं।
[४] उस्सिओदगं वा गच्छइ पतोदगं वा गच्छइ।
[१३-४] वह उच्छ्रितोदय (सीधे खड़े) रूप में भी जा सकता है और पतितोदय (पड़े हुए) रूप में भी जा सकता है।
१४.[१] से णं भंते! कि अणगारे आसे ? गोयमा! अणगारे णं से, नो खलु से आसे। [१४-१ प्र.] वह अश्वरूपधारी भावितात्मा अनगार, क्या (अश्व की विक्रिया के समय) अश्व
[१४-१ उ.] गौतम! (वास्तव में) वह अनगार है, अश्व नहीं। [२] एवं जाव परासररूवं वा।
[१४-२] इसी प्रकार पराशर (शरभ या अष्टापद) तक के रूपों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए।
विवेचन भावितात्मा अनगार द्वारा अश्वादिरूपों के अभियोगीकरण से सम्बन्धित प्ररूपणा–प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १२ से १४ तक) में भावितात्मा अनगार द्वारा विविध रूपों के अभियोजन के सम्बन्ध में निम्नोक्त तथ्य प्रकट किये गए हैं
(१) भावितात्मा अनगार विद्या आदि के बल से बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना अश्वादिरूपों का अभियोजन नहीं कर सकता।
(२) अश्वादिरूपों का अभियोजन करके वह अनेकों योजन जा सकता है, पर वह जाता है अपनी लब्धि, अपनी क्रिया या अपने प्रयोग से। वह सीधा खड़ा भी जा सकता है, पड़ा हुआ भी जा सकता है।