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तृतीय शतक : उद्देशक-५]
[३५९ ७. वह एक तरफ पताका लेकर चलने वाले पुरुष की तरह एक तरफ पताका हाथ में लेकर स्वयं आकाश में उड़ सकता है, दो तरफ पताका लेकर भी इसी तरह उड़ सकता है, तथा एक तरफ या दो तरफ पताका लिये हुए पुरुष के जैसे इतने रूप बना सकता है, कि जिनसे सम्पूर्ण जम्बूद्वीप ठसाठस भर जाए, किन्तु वह ऐसा तीन काल में भी करता नहीं।
८. एक या दोनों तरफ यज्ञोपवीत धारण किये हुए पुरुष की तरह यज्ञोपवीत धारण करके वह वैक्रियशक्ति से ऊँचे आकाश में उड़ सकता है। ऐसे एक तरफ या दोनों तरफ यज्ञोपवीतधारी पुरुष के जैसे इतने रूप बना सकता है कि सारा जम्बूद्वीप ठसाठस भर जाए, किन्तु वह कदापि ऐसा करता नहीं, किया नहीं, करेगा भी नहीं।
९. एक ओर या दोनों ओर पल्हथी मार कर बैठे हुए पुरुष की तरह वह कार्यवश पल्हथी मार कर बैठा-बैठा वैक्रियशक्ति से ऊपर आकाश में उड़ सकता है, वह ऐसे इतने रूप वैक्रियशक्ति से बना सकता है कि पूरा जम्बूद्वीप उनसे ठसाठस भर जाए।
कठिन शब्दों की व्याख्या असिचम्मपायहत्थकिच्चगएणं—जिसके हाथ में असि (तलवार) और चर्मपात्र (ढाल या म्यान) हो, वह असिचर्मपात्रहस्त है, तथा किच्चगय संघ आदि के किसी कार्य-प्रयोजनवश गया हुआ—कृत्यगत है। पलिअंकं पर्यकासन।जण्णोवइयं यज्ञोपवीत। भावितात्मा अनगार द्वारा अश्वादि रूपों के अभियोग-सम्बन्धी प्ररूपण
१२. अणगारे णं भंते! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं आसरूवं वा हत्थिरूवं वा सीह-वग्घ-वग-दीविय-अच्छ-तरच्छ-परासररूवं३ वा
अभिजुंजित्तए ?
णो इणठे समठे, अणगारे णं एवं बाहिरए पोग्गले परियादित्ता पभू ।
[१२ प्र.] भगवन्! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक बड़े अश्व के रूप को, हाथी के रूप को, सिंह, बाघ, भेड़िये (वृक), चीते (द्वीपिक), रीछ (भालू), छोटे व्याघ्र (तरक्ष) अथवा पराशर (शरभ अष्टापद) के रूप का अभियोग (अश्वादि के रूप में प्रविष्ट होकर उसके द्वारा क्रिया) करने में समर्थ है ?
[१२ उ.] गौतम! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। (अर्थात् विद्या, मन्त्र आदि के बल से ग्रहण किये हए बाह्य पदगलों के बिना वह पर्वोक्त रूपों का अभियोग नहीं कर सकता। वह भावितात्मा अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके (पूर्वोक्त रूपों का अभियोग करने में) समर्थ है।
१३.[१] अणगारे णं भंते! भावियप्पा एगं महं आसरूवं वा अभिजुंजित्ता [? पभू] अणेगाइं जोयणाई गमित्तए ? ।
२.
वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. १, पृ. १६३-१६४ भगवती-सूत्र अ. वृत्ति, दीविय = चीता (पाइअसद्दमहण्णवो पृ. ४६५) अच्छ-रीछ-भालू (पाइअसद्दमहण्णवो पृ. २१) तरच्छ-व्याघ्र विशेष (पाइअसद्दमहण्णवो पृ. ४२९) परासर-सरभ या अष्टापद (भगवती, टीकानुवाद खं. २, पृ. ९९)