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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-५] [३६१ (३) अश्वादि का रूप बनाया हुआ वह अनगार अश्व आदि नहीं होता, वह वास्तव में अनगार ही होता है। क्योंकि अश्वादि के रूप में वह साधु ही प्रविष्ट है, इसलिए वह साधु है। अभियोग और वैक्रिय में अन्तर—वैक्रिय रूप किया जाता है—वैक्रिय लब्धि या वैक्रियसमुद्घात द्वारा; जबकि अभियोग किया जाता है—विद्या, मन्त्र, तन्त्र आदि के बल से। अभियोग में मन्त्रादि के जोर से अश्वादि के रूप में प्रवेश करके उसके द्वारा क्रिया कराई जाती है। दोनों के द्वारा रूपपरिवर्तन या विविधरूप निर्माण में समानता दिखलाई देती है, परन्तु दोनों की प्रक्रिया में अन्तर है। मायी द्वारा विकुर्वणा और अमायी द्वारा अविकुर्वणा का फल १५.[१] से भंते! किं मायी विकुव्वति ? अमायी विकुव्वति ? गोयमा! मायी विकुव्वति, नो अमायी विकुव्वति। [१५-१ प्र.] भगवन् ! क्या मायी अनगार, विकुर्वणा करता है, या अमायी अनगार करता है ? [१५-१ उ.] गौतम! मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायी अनगार विकुर्वणा नहीं करता। [२] माई णं तस्स ठाणस्स अणलोइयपडिक्कंते कालं करेइ अन्नयरेसु आभिओगिएस देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ। [१५-२ प्र.] मायी अनगार उस-उस प्रकार का विकुर्वण करने के पश्चात् उस (प्रमादरूप दोष) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करता है, इस प्रकार वह मृत्यु पाकर आभियोगिक देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है। [३]अमाई णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेइ अन्नयरेसुअणाभिओगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ। सेवं भंते २ त्ति०। [१५-३] किन्तु अमायी (अप्रमत्त) अनगार उस प्रकार की विकुर्वणाक्रिया करने के पश्चात् पश्चात्तापपूर्वक उक्त प्रमादरूप दोष-स्थान का आलोचन-प्रतिक्रमण करके काल करता है, और वह मर कर अनाभियोगिक देवलोकों में से किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है। हे भगवन ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है। विवेचन मायी अनगार द्वारा कृत विकुर्वणा का और अमायी द्वारा कृत अविकुर्वणा का फल—प्रस्तुत पन्द्रहवें सूत्र में मायी अनगार द्वारा कृत विकुर्वणारूप दोष का कुफल और अमायी अनगार द्वारा विकुर्वणा न करने का सुफल प्रतिपादित किया है। विकुर्वणा और अभियोग दोनों के प्रयोक्ता मायी—यद्यपि इससे पूर्वसूत्रों में 'विकुव्वइ' के बदले 'अभिजुंजइ' का प्रयोग किया गया है, और इन दोनों क्रियापदों का अर्थ भिन्न है, किन्तु यहाँ १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठटिप्पणयुक्त), भा. १, पृ. १६४-१६५ (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १९१
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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