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तृतीय शतक : उद्देशक-३]
[३३५ है, चलता है (एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है), स्पन्दन क्रिया करता (थोड़ा या धीमा चलता) है, घट्टित होता (सर्व दिशाओं में जाता-घूमता) है, क्षुब्ध (चंचल) होता है, उदीरित (प्रबलरूप से प्रेरित) होता या करता है; और उन-उन भावों में परिणत होता है?
[११ उ.] हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित—(परिमित) रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है।
१२. [१] जावं च णं भंते! से जीवे सया समितं जाव परिणमति तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवति ?
णो इणढे समठे।
[२] से केणठेणं भंते! एवं वुच्चझ्—जावं च णं से जीवे सदा समितं जाव अंते अंतकिरिया न भवति ?
__मंडियपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया समितं जाव परिणमति तावं च णं से जीवे आरभति सारभति समारभति, आरंभे वट्टति, सारंभे वट्टति, समारंभे वट्टति, आरभमाणे सारभमाणे समारभमाणे, आरंभे वट्टमाणे, सारंभे वट्टमाणे, समारंभे वट्टमाणे बहूणं पाणाणं भूताणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खावणताए सोयावणताए जूरावणताए तिप्पावणताए पिट्टावणताए परितावणताए' वट्टति, से तेणटेणं मंडियपुत्ता! एवं वुच्चति–जावं च णं से जीवे सया समितं एयति जाव परिणमति तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति।
। [१२-१ प्र.] भगवन् ! जब तक जीव समित—परिमत रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत (परिवर्तित) होता है, तब तक क्या उस जीव की अन्तिम-(मरण) समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है ?
[१२-१ उ.] मण्डितपुत्र! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है; (क्योंकि जीव जब तक क्रियायुक्त है, तब तक अन्तक्रिया (क्रिया का अन्तरूप मुक्ति) नहीं हो सकती।
। [१२-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव समितरूप से सदा कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक उसकी अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती?
[१२-२ उ.] हे मण्डितपुत्र ! जीव जब तक सदा समित रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह (जीव) आरम्भ करता है, संरम्भ में रहता है, समारम्भ करता है; आरम्भ में रहता (वर्तता) है, संरम्भ में रहता (वर्तता) है, और समारम्भ में रहता (वर्तता) है। आरम्भ, संरम्भ
और समारम्भ करता हुआ तथा आरम्भ में, संरम्भ में, और समारम्भ में प्रवर्त्तमान जीव, बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुंचाने में, शोक कराने में, झूराने (विलाप कराने में, रुलाने अथवा
१. यहाँ किलामणयाए उद्दवणयाए' इस प्रकार का अधिक पाठ मिलता है। इनका अर्थ मूलार्थ में कोष्ठक में दे दिया
है। -सं.