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________________ ३३६] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आँसू गिरवाने में), पिटवाने में, (थकाने-हैरान करने में, डराने-धमकाने या त्रास पहुँचाने में) और परिताप (पीड़ा) देने (संतप्त करने) में प्रवृत्त होता (निमित्त बनता) है। इसलिए हे मण्डितपुत्र! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव सदा समितरूप से कम्पित होता है,यावत उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह जीव, अन्तिम समय (मरणकाल) में अन्तक्रिया नहीं कर सकता। १३. जीवे णं भंते! सया समिय नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमति ? हंता, मंडियपुत्ता! जीवे णं सया समियं जाव नो परिणमति। [१३ प्र.] भगवन्! जीव सदैव (शाश्वतरूप से) समितरूप से ही कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता? [१३ उ.] हाँ, मण्डितपुत्र! जीव सदा के लिए समितरूप से ही कम्पित नहीं होता, यावत् उनउन भावों में परिणत नहीं होता। (अर्थात् जीव एकदिन क्रियारहित हो सकता है।) १४.[१] जावं च णं भंते! से जीवे नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमति तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवति ? हंता, जाव भवति। [१४-१ प्र.] भगवन्! जब वह जीव सदा के लिए समितरूप से कम्पित नहीं होता, यावत् उनउन भावों में परिणत नहीं होता; तब क्या उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) नहीं हो जाती? __ [१४-१ उ.] हाँ, (मण्डितपुत्र!) ऐसे यावत् जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) हो जाती है। [२] से केणठेणं भंते! जाव भवति? मंडियपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयति जाव णो परिणमइ तावं च णं से जीवे नो आरभति, नो सारभति, नो समारभति, नो आरंभे वट्टइ, णो सारंभे वट्टइ, णो समारंभे वट्टइ,अणारभमाणे असारभमाणे असमारभमाणे,आरंभे अवट्टमाणे, सारंभे अवट्टमाणे, समारंभे अवट्टमाणे बहूणं पाणाणं ४ अदुक्खावणयाए जाव अपरियावणयाए वट्टइ। [१४-२ प्र.] भगवन्! ऐसा किस कारण से कहा है कि ऐसे जीव की यावत् अन्तक्रिया-मुक्ति हो जाती है ? [१४-२ उ.] मण्डितपुत्र! जब वह जीव सदा (के लिए) समितरूप से (भी) कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता, तब वह जीव आरम्भ नहीं करता, संरम्भ नहीं करता एवं समारम्भ भी नहीं करता, और न ही वह जीव आरम्भ में, संरम्भ एवं समारम्भ में प्रवृत्त होता है। आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ नहीं करता हुआ तथा आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ में प्रवृत्त न होता हुआ जीव, बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में यावत् परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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