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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अविरत त्यागवृत्तिरहित प्राणी की शारीरिक क्रिया। यह क्रिया अविरत जीवों को लगती है। दुष्प्रयुक्तकायक्रिया-दुष्टरूप (बुरी तरह) से प्रयुक्त शरीर द्वारा अथवा दुष्टप्रयोग वाले मनुष्यशरीर द्वारा हई क्रिया। यह क्रिया प्रमत्त संयत को भी प्रमादवश शरीर दुष्प्रयक्त होने से लगती है। संयोजनाधिकरणक्रिया संयोजन का अर्थ है—जोड़ना। जैसे—पक्षियों और मृगादि पशुओं को पकडने के लिए पथक-पृथक अवयवों को जोडकर एक यन्त्र तैयार करना, अथवा किसी भी पदार्थ में विष मिलाकर एक मिश्रित पदार्थ तैयार करना संयोजन है। ऐसी संयोजनरूप अधिकरणक्रिया। निर्वर्तनाधिकरणक्रिया तलवार, बी, भाला आदि शस्त्रों का निर्माण निर्वर्तन है। ऐसी निर्वर्तनरूप अधिकरण क्रिया। जीवप्राद्वेषिकी-अपने या दूसरे के जीव पर द्वेष करना या द्वेष करने से लगने वाली क्रिया।अजीवप्राद्वेषिकी अजीव (चेतनारहित) पदार्थ पर द्वेष करना अथवा द्वेष करने से होने वाली क्रिया।स्वहस्तपारितापनिकी अपने हाथ से अपने को, दूसरे को अथवा दोनों को परिताप देना-पीड़ा पहुँचाना। परहस्तपारितापनिकी-दूसरे को प्रेरणा देकर या दूसरे के निमित्त से परिताप-पीड़ा पहुंचाना। स्वहस्तप्राणातिपातिकी-अपने हाथ से स्वयं अपने प्राणों का, दूसरे के प्राणों का अथवा दोनों के प्राणों का अतिपात—विनाश करना। परहस्तप्राणातिपातिकी-दूसरे के द्वारा या दूसरे के प्राणों का अथवा दोनों के प्राणों का अतिपात करना।
क्रिया और वेदना में क्रिया प्रथम क्यों?—क्रिया कर्म की जननी है, क्योंकि कर्म क्रिया से ही बद्ध होते हैं. अथवा जन्य और जनक में अभेद की कल्पना करने से क्रिया से ही कर्म जाती है. वह क्रिया एक प्रकार का कर्म ही है। तथा वेदना का अर्थ होता है कर्म का अनभव करना। पहले कर्म होगा, तभी उसकी वेदना—अनुभव (कर्मफल भोग) होगा। अतः वेदन कर्म (क्रिया) पूर्वक होने से न्यायतः क्रिया ही पहले होती है, वेदना उसके बाद।
श्रमण निर्ग्रन्थ की क्रिया : प्रमाद और योग से सर्वथा विरत श्रमणों को भी प्रमाद और योग के निमित्त से क्रिया लगती है; इसका तात्पर्य यह है कि श्रमण जब उपयोगरहित (यतनारहित अथवा दूसरे शब्दों में, मद, विषयासक्ति, कषाय, निद्रा, विकथा आदि के वश) हो कर गमनादि क्रिया करता है, तब वह क्रिया प्रमादजन्य कहलाती है। तथा जब कोई श्रमण उपयोगयुक्त हो कर गमनादि क्रिया मन-वचन-काय (योग) से करता है तब वह ऐर्यापथिकी क्रिया योगजन्य कहलाती है। सक्रिय-अक्रिय जीवों की अन्तक्रिया के नास्तित्व-अस्तित्व का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण
११. जीवे णं भंते! सया समियं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरति तं तं भावं परिणमति ?
हंता, मंडियपुत्ता! जीवे णं सया समितं एयति जाव तं तं भावं परिणमति । [११ प्र.] भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप से कांपता है, विविध रूप से कांपता
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भगवतीसूत्र अ. वृत्ति. पत्राक १८१-१८२ वही अ. वृत्ति, पत्रांक १८२ (क) भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक १८२ (ख) भगवतीसूत्र, विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. २, पृ.६५६