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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३] [३३३ मंडियपुत्ता! पमायपच्चया जोगनिमित्तं च, एवं खलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जति। [१० प्र.] भगवन् श्रमण निर्ग्रन्थों के क्रिया कैसे (किस निमित्त से) हो (लग) जाती है ? [१० उ.] मण्डितपुत्र! प्रमाद के कारण और योग (मन-वचन-काया के व्यापार प्रवृत्ति) के निमित्त से (उनके क्रिया होती है)। इन्हीं दो कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थों को क्रिया होती (लगती) है। विवेचन क्रियाएँ : प्रकार और तत्सम्बन्धित चर्चा–प्रस्तुत १० सूत्रों (१ से १० सूत्र तक) में भगवान् और मंडितपुत्र गणधर के बीच हुआ क्रिया-विषयक संवाद प्रस्तुत किया गया है। इसमें क्रमशः निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया गया है (१) क्रियाएँ मूलतः पांच हैं। (२) पांचों क्रियाओं के प्रत्येक के अवान्तर भेद दो-दो हैं। (३) पहले क्रिया होती है और तत्पश्चात् वेदना; यह जैनसिद्धांत है। (४) श्रमणनिर्ग्रन्थों के भी क्रिया होती है और वह दो कारणों से होती है—प्रमाद से और योग के निमित्त से। क्रिया क्रिया के सम्बन्ध में भगवती, प्रज्ञापना और स्थानांग आदि कई शास्त्रों में यत्र-तत्र प्रचुर चर्चाएँ हैं। भगवतीसूत्र के प्रथमशतक में भी दो जगह इसके सम्बन्ध में विविध पहलुओं से चर्चा की गई है और वहाँ प्रज्ञापनासूत्र का अतिदेश भी किया गया है', तथापि यहाँ क्रिया सम्बन्धी मौलिक चर्चाएँ हैं। क्रिया का अर्थ जैनदृष्टि से केवल करना ही नहीं है, अपितु उसका अर्थ है-कर्मबन्ध होने में कारणरूप चेष्टा; फिर वह चेष्टा चाहे कायिक हो, वाचिक हो या मानसिक हो, जब तक जीव क्रियारहित नहीं हो जाता, तब तक कुछ न कुछ कर्मबन्धनकारिणी है ही। पांच क्रियाओं का अर्थ कायिकी-काया में या काया से होने वाली। आधिकरणिकी - जिससे आत्मा का नरकादि दुर्गतियों में जाने का अधिकार बनता है, ऐसा कोई अनुष्ठान-कार्य अथवा तलवार, चक्रादि शस्त्र वगैरह अधिकरण कहलाता है। ऐसे अधिकरण में या अधिकरण से होने वाली क्रिया। प्राद्वेषिकी-प्रद्वेष (या मत्सर) में या प्रद्वेष के निमित्त से हुई अथवा प्रद्वेषरूप क्रिया। पारितापनिकी-परिताप-पीड़ा पहुंचाने से होने वाली क्रिया। प्राणातिपातिकी-प्राणियों के प्राणों के अतिपात (वियोग या नाश) से हुई क्रिया।३ क्रियाओं के प्रकार की व्याख्या अनुपरतकायक्रिया प्राणातिपात आदि से सर्वथा १. (क) इसी से मिलता जुलता पाठ-प्रज्ञापनासूत्र २२ एवं ३१वें क्रियापद में देखिये। -प्रज्ञापना म. वृत्ति. आगमोदय०, पृ. ४३५-४५३ (ख) भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक ८ (ग) स्थानांगसूत्र, स्थान ३ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १८१ ३. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १८१
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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