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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [४३] उस समय नष्ट मानसिक संकल्प वाले यावत् आर्तध्यान करते हुए असुरेन्द्र असुरराज चमर को, सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों ने देखा तो वे हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय! आज आपका मानसिक संकल्प नष्ट हो गया हो, (इस तरह) यावत् क्यों चिन्ता में डूबे हैं ?' इस पर असुरेन्द्र असुरराज चमर ने, उन सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्राकर कहा—'हे देवानुप्रियो! मैंने स्वयमेव (अकेले ही) श्रमण भगवान् महावीर का आश्रय (निश्राय) लेकर, देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से नष्टभ्रष्ट करने का मनोगत संकल्प किया था। (तदनुसार मैंने सुधर्मासभा में जा कर उपद्रव किया था।) उससे अत्यन्त कुपित होकर मुझे मारने के लिए शक्रेन्द्र ने मुझ पर वज्र फेंका था। परन्तु देवानुप्रियो! भला हो श्रमण भगवान् महावीर का, जिनके प्रभाव से मैं अक्लिष्ट (क्लेशरहित), अव्यथित (व्यथा-पीड़ा से रहित) तथा अपरितापित (परिताप-रहित) रहा; और असंतप्त (सुखशान्ति से युक्त) हो कर यहाँ आ पाया हूँ, यहाँ समवसृत हुआ हूँ, यहाँ पहुँचा (सम्प्राप्त हुआ) हूँ और आज यहाँ मौजूद हूँ।'
'अतः हे देवानुप्रियो! हम सब चलें और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करें, यावत् उनकी पर्युपासना करें। (भगवान् महावीर स्वामी ने कहा—हे गौतम!) यों विचार करके वह चमरेन्द्र अपने चौसठ हजार सामानिक देवों के साथ, यावत् सर्व-ऋद्धि-पूर्वक यावत् उस श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, जहाँ मैं था, वहाँ मेरे समीप आया। मेरे निकट आकर तीन वार दाहिनी ओर से मेरी प्रदक्षिणा की। यावत् वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोला—'हे भगवन्! आपका आश्रय ले कर मैं स्वयमेव (अकेला ही) देवेन्द्र देवराज शक्र को, उसकी शोभा से नष्टभ्रष्ट करने के लिए गया था, यावत् (पूर्वोक्त सारा वर्णन कहना) आप देवानुप्रिय का भला हो, कि जिनके प्रभाव से मैं क्लेश-रहित होकर यावत् विचरण कर रहा हूँ। अतः हे देवानुप्रिय! मैं (इसके लिए) आपसे क्षमा मांगता हूँ।' यावत् (यों कह कर वह) उत्तरपूर्वदिशाभाग (ईशानकोण) में चला गया। फिर यावत् उसने बत्तीस-विधा से सम्बद्ध नाट्यविधि (नाटक की कला) दिखलाई। फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस लौट गया।
४४. एवं खलु गोयमा! चमरेणं असुरिदेण असुररण्णा सा दिव्वा देविड्डी लद्धा पत्ता जाव अभिसमन्नागया। ठिती सागरोवमं। महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति।
[४४] हे गौतम! इस प्रकार से असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति एवं दिव्य देवप्रभाव उपलब्ध हुआ है, प्राप्त हुआ है और अभिसमन्वागत हुआ है। चमरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम की है और वह वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करेगा।
विवेचन चिन्तित चमरेन्द्र द्वारा भगवान्की सेवा में जाकर कृतज्ञता-प्रदर्शन, क्षमायाचन और नाट्यप्रदर्शन प्रस्तुत सूत्रत्रय में शास्त्रकार ने चार तथ्यों का निरूपण किया है
(१) वज्रभयमुक्त, किन्तु अपमानित हतप्रभ चमरेन्द्र की चिन्तित दशा। (२) चिन्ता का कारण पूछे जाने पर चमरेन्द्र द्वारा सामानिकों को आपबीती कहना।
(३) भगवान् महावीर की सेवा में सदलबल पहुँचकर चमरेन्द्र द्वारा कृतज्ञताप्रदर्शन, क्षमायाचन एवं अन्त में नाट्य-प्रदर्शन करके पुनः गमन।