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तृतीय शतक : उद्देशक-२]
[३२७ वज्रभययुक्त चिन्तित चमरेन्द्र द्वारा भगवत्सेवा में जाकर कृतज्ञताप्रदर्शन, क्षमायाचन और नाट्यप्रदर्शन
४२. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया वजभयविप्पमुक्के सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा महया अवमाणेणं अवमाणिते समाणे चमरचंचाएरायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि ओहतमणसंकप्पे चिंतासोकसागरसंपविढे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झााणोवगते भूमिगतदिट्ठीए झियाति।
[४२] इसके पश्चात् वज्र-(प्रहार) के भय से विमुक्त बना हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान से अपमानित हुआ, चिन्ता और शोक के समुद्र में प्रविष्ट असुरेन्द्र असुरराज चमर, मानसिक संकल्प नष्ट हो जाने से मुख को हथेली पर रखे, दृष्टि को भूमि में गड़ाए हुए आर्तध्यान करता हुआ, चमरचंचा नामक राजधानी में, सुधर्मासभा में, चमर नामक सिंहासन पर (चिन्तितमुद्रा में बैठाबैठा) विचार करने लगा।
४३. तते णं तं चमरं असुरिदं असुररायं सामाणियपरिसोववन्नया देवा ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासंति, २ करतल जाव एवं वयासि किणं देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायंति ? तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया ते सामाणियपरिसोववन्नए देवे एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! मए समणं भगवं महावीरं नीसाए कटु सक्के देविंदे देवराया सयमेव अच्चासादिए। तए णं तेणं परिकुवितेणं समाणेणं ममं वहाए वज्जे निसिढे। तं भदं णं भवतु देवाणुप्पिया! समणस्स भगवओ महावीरस्स जस्सम्हि पभावेण अक्किटे अव्वहिए अपरिताविए इहगते, इह समोसढे, इह संपत्ते, इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ताणं विहरामि। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो जाव पज्जुवासामो' त्ति कटु चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव सव्विड्डीए जाव जेणेव असोगवरपादवे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, २ ममं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वदासि एवं खलु भंते! मए तुब्भं नीसाए सक्के देविंदे देवराया सयमेव अच्चासादिए जाव तं भई णं भवतु देवाणुप्पियाणं जस्स म्हि पभावेणं अक्किठे जाव विहरामि। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया!' जाव उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ,२ त्ता जाव बत्तीसइबद्धं नट्टविहिं उवदंसेइ, २ जामेव दिसिं पादब्भूए तामेव दिसिं पडिगते।
इन्द्रादि के गमन का यन्त्र
गमनकर्ता | गमनकाल
ऊर्ध्व
तिर्यक्
अधः
शक्रेन्द्र चमरेन्द्र
१समय १समय
८ कोश (दो योजन) | ६ कोश = १॥ योजन त्रिभागन्यून ३ कोश | त्रिभागन्यून
६ कोश = १॥ योजन ४ कोश (१ योजन) त्रिभागसहित ३ कोश
४ कोश (१ योजन)
८ कोश (२ योजन)
त्रिभागन्यून ४ कोश= १ योजन
वज्र
१समय