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________________ ३१४] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सुंसुमारपुर-सुंसुमारगिरि–बौद्धों के पिटक ग्रन्थों के सुंसुमारपुर के बदले सुसुमारगिरि का उल्लेख मिलता है, जिसे वहाँ भग्ग' देशवर्ती बताया गया है। सम्भव है, सुंसुमारगिरि के पास ही कोई भग्गदेशवर्ती सुसुंमारपुर हो। ___कठिन शब्दों की व्याख्या—'दो वि पाए साहटु'—दोनों पैरों को इकट्ठे संकुचित करके—जिनमुद्रापूर्वक स्थित होकर । वग्धारियपाणी—दोनों भुजाओं को नीचे की ओर लम्बी करके। ईसिपब्भारगएणं ईषत् —थोड़ा सा, प्राग्भार आगे मुख करके अवनत होना। चमरेन्द्र द्वारा सौधर्मकल्प में उत्पात एवं भगवदाश्रय से शक्रेन्द्रकृत वज्रपात से मुक्ति २५. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गए समाणे उड्ढं वीससाए ओहिणा आभोएइ जाव सोहम्मो कप्पो। पासइ य तत्थ सक्कं देविंदं देवरायं मघवं पागसासणं सतक्कतुं सहस्सक्खं वज्जपाणिं पुरंदरं जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं। सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए. सक्कंसि सीहासणंसि जाव दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणं पासइ, २ इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था केस णं एस अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हिरिसिरिपरिवज्जिए हीणपुण्णचाउद्दसे जे णं ममं इमाए एयारूवए दिव्वाए देविड्डीए जाव दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते जाव अभिसमन्नागए उप्पिं अप्पस्सए दिव्वाई भोगभोगाई भंजमाणे विहरइ ? एवं संपेहेइ, २ सामाणियपरिसोववन्नए देवे सद्दावेइ, २ एवं वयासी केस णं एस देवाणुप्पिया! अपत्थियपत्थए जाव भुंजमाणे विहरइ। [२५] जब असुरेन्द्र असुरराज चमर (उपर्युक्त) पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हो गया, तब उसने स्वाभाविक (वित्रसा) रूप से ऊपर सौधर्मकल्प तक अवधिज्ञान का उपयोग किया। वहाँ उसने देवेन्द्र देवराज, मघवा, पाकशासन, शतक्रतु, सहस्राक्ष, वज्रपाणि, पुरन्दर शक्र को यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रकाशित करते हुए देखा। (साथ ही उसने शक्रेन्द्र को) सौधर्मकल्प में सौधर्मावतंसक विमान में शक्र नामक सिंहासन पर बैठकर, यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करते हुए देखा। इसे देखकर चमरेन्द्र के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक (आन्तरिक) चिन्तित, प्रार्थित एवं मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ कि-अरे! कौन यह अप्रार्थित-प्रार्थक (अनिष्ट वस्तु की प्रार्थना-अभिलाषा करने वाला, मृत्यु का इच्छुक), दूर तक निकृष्ट लक्षण वाला तथा लज्जा (ही) और शोभा (श्री) से रहित, हीनपुण्या (अपूर्ण) चतुर्दशी को जन्मा हुआ है, जो मुझे इस प्रकार की इस दिव्य देवऋद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (अभिमुख समानीत) होने पर भी मेरे ऊपर (सिरपर) २. (क) वही खण्ड २ पृ.५६ (ख) मज्झिमनिकाय में अनुमानसुत्त १५, पृ.७०, और मारतज्जनियसुत्त ५०, पृ. २२४ भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १७४ 'जाव' शब्द से यह पाठ ग्रहण करना चाहिए—'दाहिणड्ढलोगाहिवई बत्तीसविमाणसयसहस्साहिवई एरावणवाहणं सुरिदं अरयंबरवत्थधरं...आलइयमालमउड नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडं।' -भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १७४
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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