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तृतीय शतक : उद्देशक-२]
[३१५ उत्सुकता से रहित (लापरवाह) होकर दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचर रहा है? इस प्रकार का सम्प्रेक्षण (आत्मफुरण) करके चमरेन्द्र ने अपनी सामानिकपरिषद् में उत्पन्न देवों को बुलाया
और बुला कर उनसे इस प्रकार कहा–'हे देवानुप्रियो ! यह बताओ कि यह कौन अनिष्ट-मृत्यु का इच्दुक है; यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है?'
२६. तए णं ते सामाणियपरिसोववन्नगा देवा चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतट्ठा० जाव हयहियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जयेणं विजयेणं वद्धावेंति, २ एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया! सक्के देविंदे देवराया जाव विहरइ।
[२६] असुरेन्द्र असुरराज चमर द्वारा सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहे (पूछे) जाने पर (आदेश प्राप्त होने के कारण) वे चित्त में अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुए। यावत् हृदय से हृतप्रभावित (आकर्षित) होकर उनका हृदय खिल उठा। दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्रित करके शिरसावर्तसहित मस्तक पर अंजलि करके उन्होंने चमरेन्द्र को जय-विजय शब्दों से बधाई दी। फिर वे इस प्रकार बोले—'हे देवानुप्रिय! यह तो देवेन्द्र देवराज शक्र है, जो यावत् दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है!'
२७. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया तेसिं सामाणियपरिसोववन्नगाणं देवाणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे ते सामाणियपरिसोववन्नए देवे एवं वयासी—'अन्ने खलु भो! से सक्के देविंदे देवराया, अन्ने खलु भो! से चमरे असुरिंदे असुरराया, महिड्डीए खलु से सक्के देविंदे देवराया, अप्पिड्डीए खलु भो! से चमरे असुरिंदे असुरराया। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सक्कं देविंदे देवरायं सयमेव अच्चासादेत्तए' त्ति कटु उसिणे उसिणब्भूए याऽवि होत्था।
[२७] तत्पश्चात् उन सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस बात (उत्तर) को सुनकर मन में अवधारण करके वह असुरेन्द्र असुरराज चमर शीघ्र ही क्रुद्ध (लालपीला), रुष्ट, कुपित एवं चण्ड–रौद्र आकृतियुक्त हुआ, और क्रोधावेश में आकर बड़बड़ाने लगा। फिर उसने सामानिकपरिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहा-'अरे ! वह देवेन्द्र-देवराज शक्र कोई दूसरा है, और यह असुरेन्द्र असुरराज चमर कोई दूसरा है ! देवेन्द्र देवराज शक्र तो महाऋद्धि वाला है, जबकि असुरेन्द्र असुरराज चमर अल्पऋद्धि वाला ही है, (यह सब मैं जानता हूँ, फिर भी मैं इसे कैसे सहन कर सकता हूँ?) अतः हे देवानुप्रियो! मैं चाहता हूँ कि मैं स्वयमेव (अकेला ही) उस देवेन्द्र देवराज शक्र को उसके स्वरूप (पद या शोभा) से भ्रष्ट कर दूं।' यों कह कर वह चमरेन्द्र (कोपवश) गर्म (उत्तप्त) हो गया, (अस्वाभाविक रूप से) गर्मागर्म (उत्तेजित) हो उठा।
२८. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया ओहिं पउंजइ, २ ममं ओहिणा आभोएइ, २ इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था—एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सुंसुमारपुरे नगरे असोगवणसंडे उजाणे असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि