________________
३१०]
[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
=
लिए। वेदणउवसामणयाए - दुःख का उपशमन करने के लिए। णाणुप्पायमहिमासु केवलज्ञान कल्याणक की महिमा (महोत्सव) करने के लिए। वित्तासेंति= त्रास पहुंचाते हैं। अहालहुसगाई-यथोचित्त लघुरूप —छोटे-छोटे अथवा अलघु = वरिष्ठ महान्। कायं पव्वहंति = शरीर को व्यथित पीड़ित करते हैं । उप्पयंति= ऊपर उड़ते हैं— जाते हैं । समइक्कंताहिं व्यतीत होने के पश्चात् । लोयच्छेरभूए-लोक में आश्चर्य भूत= आश्चर्यजनक । णिस्साए निश्राय = आश्रय से । सुमहल्लमवि = अत्यन्त विशाल । जोहबलं=योद्धाओं के बल-सैन्य को । आगलेंति = अकुलाते =थकाते हैं । णण्णत्थ-अथवा नान्यत्र = उनके निश्राय के बिना। एगंतं = एकान्त, निर्जन । अंतं = प्रदेश । उप्पइयपुव्विं = पहले ऊपर गया था ।
१८. अहो णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया महिड्डीए महज्जुतीए जाव कहिं पविट्ठा ?
कूडागारसालादिट्ठतो भाणियव्वो ।
[१८ प्र.] 'अहो, भगवन् ! (आश्चर्य है, ) असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि एवं महाद्युति वाला है ! तो हे भगवन् ! (नाट्यविधि दिखाने के पश्चात् ) उसकी वह दिव्य देवऋद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव कहाँ गया, कहाँ प्रविष्ट हुआ ?'
[१८ उ.] ( गौतम! पूर्वकथितानुसार) यहाँ भी कूटाकारशाला का दृष्टान्त कहना चाहिए । (अर्थात् — कूटाकारशाला के दृष्टान्तानुसार असुरेन्द्र की वह दिव्य देवऋद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव, उसी शरीर में समा गया; शरीर में ही प्रविष्ट हो गया ।)
चमरेन्द्र के पूर्वभव से लेकर इन्द्रत्वप्राप्ति तक का वृत्तान्त
१९. चमरेणं भंते! असुरिंदेणं असुररण्णा सा दिव्वा देविड्डो तं चेव किणा लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया ? २
एवं खलु गोयमा !
तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे विंझगिरिपायमूले बेभेले नामं सन्निवेसे होत्था । वण्णओ । तत्थ णं बेभेले सन्निवेसे पूरणे नामं गाहावती परिवसति अड्ढेः दित्ते तालिस (उ. १ सु. ३५-३७ ) वत्तव्वया तहा नेतव्वा, नवरं चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहं करेत्ता जाव विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं जाव सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहयं गाय मुंडे भवित्ता दाणामाए पव्वज्जाए- पव्वइत्तए ।
[१९ प्र.] भगवन्! असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि और यावत् वह सब, प्रकार उपलब्ध हुई, प्राप्त हुई और अभिसमन्वागत हुई (अभिमुख आई ) ?
[१९ उ.] हे गौतम! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष (क्षेत्र) में, विन्ध्याचल की तलहटी (पादमूल) में 'बेभेल' नामक सन्निवेश था। वहाँ 'पूरण' नामक एक
१.
२.
भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १७४
इस प्रश्न के उत्तर की परिसमाप्ति ४४ सूत्र में होती है।