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तृतीय शतक : उद्देशक-२]
[३०९ सौधर्मकल्प तक नहीं जा सकते; किन्तु महती ऋद्धिवाले असुरकुमार देव ही यावत् सौधर्म-देवलोक तक ऊपर जाते हैं।
१७. एस वि य णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया उड्ढं उप्पतियपुव्वे जाव सोहम्मो कप्पो ?
हंता, गोयमा! एस वि य णं चमरे असुरिंदे असुरराया उड्ढे उप्पतियपुव्वे जाव सोहम्मो कप्पो।
। [१७ प्र.] हे भगवन् ! क्या असुरेन्द्र असुरराज चमर भी पहले कभी ऊपर—यावत् सौधर्मकल्प तक ऊर्ध्वगमन कर चुका है ?
[१७ उ.] हाँ, गौतम! यह असुरेन्द्र असुरराज चमर भी पहले ऊपर—यावत् सौधर्मकल्प तक ऊर्ध्वगमन कर चुका है।
विवेचन–असुरकुमार देवों के अधो-तिर्यक्-ऊर्ध्व-गमन-सामर्थ्य से सम्बन्धित प्ररूपणा–प्रस्तुत १४ सूत्रों (सू.५ से १८ तक) में असुरकुमार देवों के गमन-सामर्थ्य-सम्बन्धी चर्चा निम्नोक्त क्रम से की गई है
(१) क्या असुरकुमार देवों का अधोगमनसामर्थ्य है ? यदि है तो वे नीचे कहाँ तक जा सकते हैं और किस कारण से जाते हैं ?
। (२) क्या असुरकुमार देवों का तिर्यग्गमन-सामर्थ्य है? यदि है तो वे तिरछे कहाँ तक और किस कारण से जाते हैं ?
(३) क्या असुरकुमार देव ऊर्ध्वगमन कर सकते हैं ? कर सकते हैं तो कहाँ तक कर सकते हैं तथा कहाँ तक करते हैं? तथा वे किन कारणों से सौधर्मकल्प तक ऊपर जाते हैं ? क्या वहाँ वे वहाँ की अप्सराओं के साथ दिव्यभोगों का उपभोग कर सकते हैं? कितना काल बीत जाने पर वे सौधर्म-कल्प में गए हैं, जाते हैं, या जाएँगे? तथा वे किसका आश्रय लेकर सौधर्मकल्प तक जाते हैं ? क्या चमरेन्द्र पहले कभी सौधर्मकल्प में गया है??
'असुर' शब्द पर भारतीय धर्मों की दृष्टि से चर्चा-असुर शब्द का प्रयोग वैदिक पुराणों में 'दानव' अर्थ में हुआ है। यहाँ भी उल्लिखित वर्णन पर से 'असुर' शब्द इसी अर्थ को सूचित करता है। पौराणिक साहित्य में प्रसिद्ध 'सुराऽसुरसंग्राम' (देव-दानवयुद्ध) भगवतीसूत्र में उल्लिखित असुरकुमार देवों की चर्चा से मिलता जुलता परिलक्षित होता है। यहाँ बताया गया है कि असुरकुमारों और सौधर्मादि सुरों में परस्पर अहिनकुलवत् जन्मजातवैर (भवप्रत्ययिक वैरानुबन्ध) होता है। इसी कारण वे ऊपर सौधर्मदेवलोक तक जाकर उपद्रव करते हैं, चोरी करते हैं और वहाँ की सुरप्रजा को त्रास देते हैं।
कठिन शब्दों की व्याख्या-'अहे गतिविसए'नीचे जाने का विषय-शक्ति । पुव्वसंगइयस्स' पूर्वपरिचित साथियों या मित्रों का। 'वेदणउदीरणयाए-दुःख की उदीरणा करने के १. वियाहपण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ टिप्पण) (पं. बेचरदासजी) भा. १, पृ.१४१ से १४३ तक
श्रीमद्भगवतीसूत्र (टीकानुवादसहित) (पं. बेचरदासजी) खण्ड २, पृ. ४८