SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३००] _ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता आदि तथा स्थिति एवं सिद्धि के विषय में प्रश्नोत्तर . ६२. [१] सणंकुमारे णं भंते ! देविंदे देवराया किं भवसिद्धिए, अभवसिद्धिए ? सम्मट्ठिी, मिच्छट्ठिी ? परित्तसंसारए, अणंतसंसारए ? सुलभबोहिए, दुल्लभबोहिए ? आराहए, विराहए ? चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सणंकुमारे णं देविंदे देवराया भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए, एवं सम्मट्ठिी परित्तसंसारए सुलभबोहिए आराहए चरिमे, पसत्थं नेयव्वं । [६२-१ प्र.] हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार क्या भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक है ?; सम्यग्दृष्टि है, या मिथ्यादृष्टि है ? परित्त (परिमित) संसारी है या अनन्त (अपरिमित) संसारी ?; सुलभबोधि है, या दुर्लभबोधि ?; आराधक है, अथवा विराधक ? चरम है अथवा अचरम ? _[६२-१ उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं; इसी तरह वह सम्यग्दृष्टि है, (मिथ्यादृष्टि नहीं;) परित्तसंसारी है, (अनन्तसंसारी नहीं); सुलभबोधि है, (दुर्लभबोधि नहीं;) आराधक है, (विराधक नहीं;) चरम है, (अचरम नहीं।) (अर्थात्-इस सम्बन्ध में सभी) प्रशस्त पद ग्रहण करने चाहिए। [२] से केणटेणं भंते ? गोयमा! सणंकुमारे देविंदे देवराया बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं साविगाणं हियकामए सुहकामए पत्थकामए आणुकंपिए निस्सेयसिए हिय-सुह-निस्सेसकामए, से तेणढेणं गोयमा! सणंकुमारे णं भवसिद्धिए जाव नो अचरिमे। [६२-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है)? [६२-२ उ.] गौतम! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुतसे श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं का हितकामी (हितैषी), सुखकामी (सुखेच्छु), पथ्यकामी (पथ्याभिलाषी), अनुकम्पिक (अनुकम्पा करने वाला), निश्रेयसिक (निःश्रेयस कल्याण या मोक्ष का इच्छुक) है। वह उनका हित, सुख और निःश्रेयस का कामी (चाहने वाला) है। इसी कारण, गौतम! सनत्कमारेन्द्र भवसिद्धिक है. यावत (चरम है. किन्त) अचरम नहीं। ६३. सणंकुमारस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! सत्त' सागरोवमाणि ठिती पण्णत्ता। [६३ प्र.] भगवन्! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की स्थिति (आयु) कितने काल की कही गई है ? [६३ उ.] गौतम! सनत्कुमारेन्द्र की स्थिति (उत्कृष्ट) सात सागरोपम की कही गई है। ६४. से णं भंते! ताओ देवलोगातो आउक्खएणं जाव कहिं उववज्जिहिति? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति। सेवं भंते! सेवं भंते! ०॥ १. तुलना—'सप्त सनत्कुमारे'-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ४, सू. ३६
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy