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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [२९९ सम्बोधित करके वे एक दूसरे के कृत्यों (प्रयोजनों) और करणीयों (कार्यों) को अनुभव करते हुए विचरते हैं, (अर्थात् —दोनों अपना-अपना कार्यानुभव करते रहते हैं।) ६१.[१] अस्थि णं भंते! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं विवादा समुप्पज्जंति ? हंता, अत्थि। [६१-१ प्र.] भगवन् ! क्या देवेन्द्र शक्र और देवेन्द्र देवराज ईशान, इन दोनों में विवाद भी समुत्पन्न होता [६१-१ उ.] हाँ, गौतम! (इन दोनों इन्द्रों के बीच विवाद भी समुत्पन्न) होता है। [२] से कहमिदाणिं पकरेंति? गोयमा! ताहे चेव णं ते सक्कीसाणा देविंदं देवरायाणो सणंकुमारं देविंदे देवरायं मणसी करेंति। तए णं से सणंकुमारे देविंदे देवराया तेहिं सक्कीसाणेहिं देविंदेहिं देवराईहिं मणसीकए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं अंतियं पादुब्भवति। जं से वदइ तस्स आणा-उववाय-वयण-निद्देसे चिटुंति। [६१-२ प्र.] (भगवन्! जब उन दोनों इन्द्रों में परस्पर विवाद उत्पन्न हो जाता है;) तब वे क्या करते [६१-२ उ.] गौतम! जब शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र में परस्पर विवाद उत्पन्न हो जाता है, तब वे दोनों, देवेन्द्र देवराज सनत्कुमारेन्द्र का मन में स्मरण करते हैं । देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र द्वारा स्मरण करने पर शीघ्र ही सनत्कुमारेन्द्र देवराज, शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र के निकट प्रकट होता (आता) है। वह जो भी कहता है, (उसे ये दोनों इन्द्र मान्य करते हैं।). ये दोनों इन्द्र उसकी आज्ञा, सेवा, आदेश और निर्देश में रहते हैं। विवेचन—दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार तथा विवाद में सनत्कुमारेन्द्र की मध्यस्थता प्रस्तुत छह सूत्रों (५६ से ६१ सू. तक) में शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र के परस्पर मिलने-जुलने, एक दूसरे को आदर देने, एक दूसरे को भलीभांति देखने (प्रेमपूर्वक साक्षात्कार करने), परस्पर वार्तालाप करने तथा पारस्परिक विवाद उत्पन्न होने पर सनत्कुमारेन्द्र को मध्यस्थ बनाकर उसकी बात मान्य करने आदि द्वारा दोनों इन्द्रों के पारस्परिक शिष्टाचार एवं व्यवहार का निरूपण किया गया है। कठिन शब्दों के विशेषार्थ—पाउब्भवित्तए-प्रादुर्भूत-प्रकट होने-आने के लिए। आलावं-आलाप—एक बार संभाषण, संलावं बार-बार संभाषण, किच्चाइं-कृत्य अर्थात् प्रयोजन, करणिज्जाइं-करणीय-करने योग्य कार्य। कहमिदाणिं पकरेंति-जब कार्य करने का प्रसंग हो, तब वे किस प्रकार से करते हैं? पच्चणुभवमाणा–प्रत्यनुभव करते हुए अपने-अपने करणीय कार्य का अनुभव करते हुए। इति भो! ऐसी बात है जी! या यह कार्य है, अजी! आढायमाणे-अणाढायमाणे-इन दोनों शब्दों का तात्पर्य यह भी है कि शक्रेन्द की अपेक्षा ईशानेन्द्र का दर्जा ऊँचा है, इसलिए शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास तभी जा सकता है जबकि ईशानेन्द्र शक्रेन्द्र को आदरपूर्वक बुलाए। अगर आदरपूर्वक न बुलाए तो वह ईशानेन्द्र के पास नहीं जाता, किन्तु ईशानेन्द्र शक्रेन्द्र के पास बिना बुलाए भी जा सकता है क्योंकि उसका दर्जा ऊंचा है। (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १६९ (ख) भगवती-विवेचन [पं. घेवरचंदजी], भा. २, पृ.५९८ से ६०० तक भगवतीसूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका [हिन्दी-गुर्जर भावानुवादयुक्त] भाग ३, पृ. २८६
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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