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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सी तप्त हो गई है); वे सब असुरकुमार देवगण, ईशानेन्द्र (देवेन्द्र देवराज) की उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवधुति, दिव्य देवप्रभाव और दिव्य तेजोलेश्या को सहन न करते हुए देवेन्द्र देवराज ईशान के चारों दिशाओं में और चारों विदिशाओं में ठीक सामने खड़े होकर (ऊपर की ओर मुख करके दसों नख इकट्ठे हों, इस तरह से दोनों हाथ जोड़कर शिरसावर्तयुक्त मस्तक पर अंजलि करके ईशानेन्द्र को जयविजय-शब्दों (के उच्चारणपूर्वक) बधाने लगे-अभिनन्दन करने लगे। अभिनन्दन करके वे इस प्रकार बोले-'अहो! (धन्य है!) आप देवानुप्रिय ने दिव्य देवऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है, और अभिमुख कर ली है! हमने आपके द्वारा उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (सम्मुख की हुई) दिव्य देवऋद्धि को, यावत् देवप्रभाव को प्रत्यक्ष देख लिया है। अतः हे देवानुप्रिय! (अपने अपराध के लिए) हम आप से क्षमा मांगते हैं। आप देवानुप्रिय हमें क्षमा करें। आप देवानुप्रिय हमें क्षमा करने योग्य हैं। (भविष्य में) फिर कभी इस प्रकार नहीं करेंगे।' इस प्रकार निवेदन करके उन्होंने ईशानेन्द्र से अपने अपराध के लिए विनयपूर्वक अच्छी तरह बार-बार क्षमा मांगी।
५१. तते णं ईसाणे देविंदे देवराया तेहिं बलिचंचारायहाणीवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य एयमढं सम्मं विणएणं भुज्जो २ खामिए समाणे तं दिव्वं देविड्ढेि जाव तेयलेस्सं पडिसाहरइ। तप्पभितिं च णं गोयमा! ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंदं देवरायं आढ़ति जाव पज्जुवासंति, ईसाणस्स य देविंदस्स देवरण्णो आणा-उववाय-वय-निद्देसे चिट्ठति।
[५१] अब जबकि बलिचंचा-राजधानी-निवासी उन बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने देवेन्द्र देवराज ईशान से अपने अपराध के लिए सम्यक् विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना कर ली, तब ईशानेन्द्र ने उस दिव्य देवऋद्धि यावत् छोड़ी हुई तेजोलेश्या वापस खींच (समेट) ली।
हे गौतम! तब से बलिचंचा-राजधानी-निवासी वे बहुत-से असुरकुमार देव और देवीवृन्द देवेन्द्र देवराज ईशान का आदर करते हैं यावत् उसकी पर्युपासना (सेवा) करते हैं। (और तभी से वे) देवेन्द्र देवराज ईशान की आज्ञा और सेवा में, तथा आदेश और निर्देश में रहते हैं।
५२. एवं खलु गोयमा! ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागया।
[५२] हे गौतम! देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्य देवऋद्धि यावत् इस प्रकार लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत की है।
विवेचन-ईशानेन्द्र के प्रकोप से उत्तप्त एवं भयभीत असुरों द्वारा क्षमायाचना-इन छह सूत्रों (४७ से ५२ सू. तक) में ईशानेन्द्र से सम्बन्धित सात मुख्य वृत्तान्त शास्त्रकार ने प्रस्तुत किये
१. असुरकुमार देवगण द्वारा तामली तापस (वर्तमान में ईशानेन्द्र) के शव की होती हुई दुर्दशा देख ईशानकल्पवासी वैमानिकदेवगण ने अत्यन्त कुपित होकर अपने सद्य:जात ईशानेन्द्र को वस्तुस्थिति से अवगत कराया।