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तृतीय शतक : उद्देशक-१]
[२९३ ४८. तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया तेसिं ईसाणकप्पवासीणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तत्थेव सयणिज्जवरगए तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु बलिचंचं रायहाणिं अहे सपक्खि सपडिदिसिं समभिलोएइ, तए णं सा बलिचंचा रायहाणी ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा अहे सपक्खि सपडिदिसिं समभिलोइया समाणी तेणं दिव्वप्पभावेणं इंगालब्भूया मुम्मुरब्भूया छारिब्भूया तत्तकवेल्लकब्भूया तत्ता समजोइब्भूया जाया यावि होत्था।
[४८] उस समय देवेन्द्र देवराज ईशान ईशानकल्पवासी बहुत-से वैमानिक देवों और देवियों से यह बात सुनकर और मन में विचारकर शीघ्र ही क्रोध से आगबबूला हो उठा, यावत् क्रोधाग्नि से तिलमिलाता (मिसमिसाहट करता) हुआ, वहीं देवशय्या स्थित ईशानेन्द्र ने ललाट पर तीन सल (रेखाएँ) डालकर एवं भ्रुकुटि तान कर बलिचंचा राजधानी को, नीचे ठीक सामने, (सपक्ष-चारों दिशाओं से बराबर सम्मुख, और सप्रतिदिक् (चारों विदिशाओं से भी एकदम सम्मुख) होकर एकटक दृष्टि से देखा। इस प्रकार कुपित दृष्टि से बलिंचचा राजधानी को देखने से वह उस दिव्यप्रभाव से जलते हुए अंगारों के समान, अग्नि-कणों के समान, तपी हुई राख के समान, तपतपाती बालू जैसी या तपे हुए गर्म तवे सरीखी और साक्षात् अग्नि की राशि जैसी हो गई—जलने लगी।
४९. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तं बलिचंचं रायहाणिं इंगालब्भूयं जाव समजोतिब्भूयं पासंति, २ भीया उत्तत्था सुसिया उव्विग्गा संजायभया सव्वओ समंता आधावेंति परिधावेंति,२ अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा २ चिट्ठति।
[४९] जब बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने उस बलिचंचा राजधानी को अंगारों सरीखी यावत् साक्षात् अग्नि की लपटों जैसी देखी तो वे उसे देखकर अत्यन्त भयभीत हुए, भयत्रस्त होकर काँपने लगे, उनका आनन्दरस सूख गया (अथवा उनके चेहरे सूख गए), वे उद्विग्न हो गए, और भय के मारे चारों ओर इधर-उधर भाग-दौड़ करने लगे। (इस भगदड़ में) वे एक दूसरे के शरीर से चिपटने लगे अथवा एक दूसरे के शरीर की ओट में छिपने लगे।
५०. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंदं देवरायं परिकुवियं जाणित्ता ईसाणस्स देविंदस्स देवरणो तं दिव्वं देविट्विं दिव्वं देवज्जुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा सव्वे सपक्खि सपडिदिसिं ठिच्चा करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजयेणं वद्धाविंति, २ एवं वयासी–अहो णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्डी जाव अभिसमन्नागता, तं दिट्ठा णं देवाणुप्पियाणं दिव्वा देविड्डी जाव लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया। तं खामेमो णं देवाणुप्पिया!, खमंतु णं देवाणुप्पिया!, खंतुमरिहंति णं देवाणुप्पिया!, णाइ भुज्जो एवंकरणयाए त्ति कटु एयमढं सम्मं विणयेणं भुज्जो २ खामेंति।
_[५०] ऐसी दुःस्थिति हो गई, तब बलिचंचा-राजधानी के बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने यह जानकर कि देवेन्द्र देवराज ईशान के परिकुपित होने से (हमारी राजधानी इस प्रकार आग