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(सल
तृतीय शतक : उद्देशक-१]
[२९५ २. सुनकर देवशय्या स्थित कुपित ईशानेन्द्र ने बलिचंचाराजधानी को तेजोलेश्यापूर्ण दृष्टि से देखा। बलिचंचा जाज्वल्यमान अग्निसम तप्त हो गई।
३. बलिचंचा-निवासी असुर अपनी निवासभूमि को अत्यन्त तप्त देख भयत्रस्त होकर कांपने तथा इधर-उधर भागने लगे।
४. ईशानेन्द्र की तेजोलेश्या का प्रभाव असह्य होने से वे मिलकर उससे अनुनय-विनय करने तथा अपने अपराध के लिए क्षमायाचना करने लगे।
५. इस प्रकार असुरों द्वारा की गई क्षमायाचना से ईशानेन्द्र ने करुणार्द्र होकर अपनी तेजोलेश्या वापस खींच ली। बलिचंचाराजधानी में शान्ति हो गई।
६. तब से बलिचंचा के असुरगण ईशानेन्द्र को आदर-सत्कार एवं विनयभक्ति करने लगे, और उनकी आज्ञा, सेवा एवं आदेश में तत्पर रहने लगे।
७. भ. महावीर ने गौतम द्वारा ईशानेन्द्र की देवऋद्धि आदि से सम्बन्धित प्रश्न के उत्तर का उपसंहार किया।
कठिन शब्दों के विशिष्ट अर्थ—'तिवलियं भिउडिंनिडालेसाहटु-ललाट में तीन रेखाएं
आएं इस प्रकार से भ्रकटि चढा कर। तत्तकवेलगभया = तपे हए कवेल (कडाही या तवा)
पी। तत्तसमजोडयभया अत्यन्त तपी हई लाय. अग्नि की लपट या साक्षात अग्निराशि या ज्योति के समान। आकड-विकडिं करेंतिं मनचाहा आडा-टेढा या इधर-उधर खींचते या घसीटते हैं। समतुरंगेमाणा-एक दूसरे से चिपटते या एक दूसरे की ओट में छिपते हुए। आणा-तुम्हें यह कार्य करना ही है, इस प्रकार का आदेश, उववाय-पास में रहकर सेवा करना, वयण आज्ञा-पूर्वक आदेश, निद्देस-पूछे हुए कार्य के सम्बन्ध में नियत उत्तर। ईशानेन्द्र की स्थिति तथा परम्परा से मुक्त हो जाने की प्ररूपणा
५३. ईसाणस्स णं भंते! देविंदस्स देवरणो केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! सातिरेगाइं दो सागरोवमाई.ठिती पण्णत्ता। [५३ प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [५३ उ.] गौतम! ईशानेन्द्र की स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक की कही गई है।
५४. ईसाणे णं भंते! देविंदे देवराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति। १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) (ख) (पं. बेचरदासजी) भा. १. पृ. १३६-१३७ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक १६७
(ख) भगवती विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा.२, पृ.५८८ से५९२ तक (ग) श्रीमद्भगवती सूत्र (टीका-अनुवाद सहित) (पं. बेचरदासजी) खण्ड २, पृ. ४५ (घ) भगवतीसूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका (पू. घासीलालजी म.) भा. ३, पृ. २६५ से २७२