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________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (३) उनके अनुरोध का तामली तापस द्वारा अनादर और अस्वीकार । (४) तामली तापस द्वारा अनादृत होने तथा स्वकीय प्रार्थना अमान्य होने से उक्त देवगण का निराश होकर अपने स्थान को लौट जाना । २९०] पुरोहित बनने की विनति नहीं— तामली तापस को उक्त देवगण ने पुरोहित बनने की विनति इसलिए नहीं की कि इन्द्र के अभाव में शान्तिकर्मकर्ता पुरोहित हो नहीं सकता था । देवों की गति के विशेषण उक्किट्ठा = उत्कर्षवती, तुरिया - त्वरावाली गति, चवला शारीरिक चपलतायुक्त, चंडा - रौद्ररूपा, जइणा = दूसरों की गति को जीतने वाली, छेया = उपायपूर्वकप्रवृत्ति होने से निपुण, सीहा-सिंह की गति के समान अनायास होनी वाली, सिग्घा = शीघ्रगामिनी, दिव्या दिव्यदेवों की उद्ध्या-गमन करते समय वस्त्रादि उड़ा देने वाली, अथवा उद्धत सदर्प गति । ये सब देवों की गति (चाल) के विशेषण हैं । सपक्खि सपडिदिसिं की व्याख्या— सपविंख - सपक्ष अर्थात् जिस स्थल में उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम, के सभी पक्ष - पार्श्व (पूर्व आदि दिशाएँ विदिशाएं।) एकसरीखे हों, वह सपक्ष । सपडिदिसिं-जिस स्थान से सभी प्रतिदिशाएं (विदिशाएँ) एक समान हों, वह प्रतिदिक् है । तामली बालतपस्वी की ईशानेन्द्र के रूप में उत्पत्ति ४५: तेणं काणं तेणं समएणं ईसाणे कप्पे अणिंदे अपुरोहिते यावि होत्था । तए णं से ताली बातवस्सी रिसी बहुपडिपुण्णाइं सद्धिं वाससहस्साइं परियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे ईसाणवडिंस विमाणे उववातसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूतरिते अंगुलस्स असंखेज्जभागमेत्तीए ओगाहणाए ईसाण-देविंदविरहकालसमयंसि ईसाणदेविंदत्ताए उववन्ने । तणं से ईसा देविंदे देवराया अहुणोववने पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छति, जहा—आहारपज्जत्तीए जाव भासा - मणपज्जत्तीए । तं [४५] उस काल और उस समय में ईशान देवलोक (कल्प) इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित भी था। उस समय ऋषि तामली बालतपस्वी, पूरे साठ हजार वर्ष तक तापस पर्याय का पालन करके, दो महीने की संलेखना से अपनी आत्मा को सेवित करके, एक सौ बीस भक्त (टंक) अनशन में काट कर (अर्थात् — १२० बार का भोजन छोड़ कर दो मास तक अनशन का पालन कर) काल के अवसर पर काल करके ईशान देवलोक के ईशानावतंसक विमान में उपपातसभा की देवदूष्य - वस्त्र से आच्छादित देवशय्या में अंगुल के असंख्येय भाग जितनी अवगाहना में, ईशान देवलोक के इन्द्र के विरहकाल (अनुपस्थिति काल) में ईशानदेवेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ । तत्काल उत्पन्न वह देवेन्द्र देवराज ईशान, आहारपर्याप्ति से लेकर यावत् भाषा - मनःपर्याप्ति तक, पंचविधि पर्याप्तियों से पर्याप्तिभाव को प्राप्त हुआ— पर्याप्त हो गया । १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १६७
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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