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________________ २८८] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अणिंदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवाणुप्पिया! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया! बलिचंचं रायहाणिं आढाह परियाणह सुमरह, अळं बंधह, णिदाणं पकरेह, ठितिपकप्पं पकरेह। तए णं तुब्भे कालमासे कालं किच्चा बलिचंचारायहाणीए उववजिस्सह, तए णं तुब्भे अहं इंदा भविस्सह, तए णं तुब्भे अम्हेहिं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरिस्सह।" । [४१] उस काल उस समय में बलिंचंचा (उत्तरदिशा के असुरेन्द्र असुरकुमारराज की) राजधानी इन्द्रविहीन और (इन्द्र के अभाव में) पुरोहित से विहीन थी। उन बलिचंचा राजधानी निवासी बहुत-से असुरकुामर देवों और देवियों ने तामली बालतपस्वी को अवधिज्ञान से देखा। देखकर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा—'देवानुप्रियो! (आपको मालूम ही है कि) बलिचंचा राजधानी (इस समय) इन्द्र से विहीन और पुरोहित से भी रहित है । हे देवानुप्रियो ! हम सब (अब तक) इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित (रहे) हैं, अपना सब कार्य इन्द्र की अधीनता में होता है। हे देवानुप्रियो! (भारतवर्ष में ताम्रलिप्ती नगरी में) यह तामली बाल-तपस्वी ताम्रलिप्ती नगरी के बाहर उत्तरपूर्वदिशाभाग (ईशानकोण) में निवर्तनिक (निवर्तनपरिमित या अपने शरीरपरिमित) मंडल (स्थान) का आलेखन करके, संलेखना तप की आराधना से अपनी आत्मा को सेवित करके, आहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान कर, पादपोपगमन अनशन को स्वीकार कर रहा हुआ है। अतः देवानुप्रियो! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि तामली बालतपस्वी को बलिचंचा राजधानी में (इन्द्र रूप में) स्थिति करने (आकर रहने) का संकल्प (प्रकल्प) कराएँ।' ऐसा (विचार) करके परस्पर एक-दूसरे के पास (इस बात के लिए) वचनबद्ध हुए। फिर (वे सब अपने वचनानुसार) बलिचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर निकले और जहाँ रुचकेन्द्र उत्पातपर्वत था, वहाँ आए। वहाँ आकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात से अपने आपको समवहत (युक्त) किया, यावत् उत्तरवैक्रियरूपों की विकुर्वणा की। फिर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जयिनी, छेक (निपुण) सिंहसदृश, शीघ्र, दिव्य और उद्धृत देवगति से (वे सब) तिरछे असंख्येय द्वीप-समुद्रों के मध्य में से होते हुए जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वीप था, जहाँ भारतवर्ष था, जहाँ ताम्रलिप्ती नगरी थी, जहाँ मौर्यपुत्र तामली तापस था, वहाँ आए, और तामली बालतपस्वी के (ठीक) ऊपर (आकाश में) चारों दिशाओं और चारों कोनों (विदिशाओं) में सामने खड़े (स्थित) होकर दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवप्रभाव और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाटकविधि बतलाई। इसके पश्चात् तामली बालतपस्वी की दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की, उसे वन्दननमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय! हम बलिचंचा राजधानी के निवासी बहुत-से असुरकुमार देव और देवीवृन्द आप देवानुप्रिय को वन्दन-नमस्कार करते हैं यावत् आपकी पर्युपासना करते हैं। हे देवानुप्रिय! (इस समय) हमारी बलिचंचा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से विहीन है और हे देवानुप्रिय! हम सब इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित रहने वाले हैं। और हमारे सब कार्य इन्द्राधीन होते हैं। इसलिए हे देवानुप्रिय! आप बलिचंचा राजधानी (के अधिपतिपद) का आदर करें (अपनावें)। उसके स्वामित्व को स्वीकार करें, उसका मन में भली-भांति स्मरण (चिन्तन) करें, उसके लिए (मन में) निश्चय करें, उसका (बलिचंचा राजधानी के इन्द्र पद की प्राप्ति का) निदान करें,
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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