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________________ त्रिविध वीर्य ८५, उपस्थान क्रिया और अपक्रमण क्रिया ८५, मोहनीय कर्म वेदते हुए भी अपक्रमण क्यों? ८५, कृतकर्म भोगे बिना मोक्ष नहीं ८५, प्रदेशकर्म ८६, अनुभाग कर्म ८६, आभ्युपगमिकी वेदना का अर्थ ८६, औपक्रमिकी वेदना का अर्थ ८७, यथाकर्म, यथानिकरण का अर्थ ८७, पापकर्म का आशय ८७, पुद्गल, स्कन्ध और जीव के सम्बन्ध में त्रिकाल शाश्वत प्ररूपणा ८७, वर्तमान काल को शाश्वत कहने का कारण ८८, पुद्गल का प्रासंगिक अर्थ ८८, छद्मस्थ मनुष्य की मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर ८८, केवली की मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर ८९, छद्मस्थ' का अर्थ ९०, आधोऽवधि और परमावधि ज्ञान ९०। पंचम उद्देशक-पृथ्वी चौबीस दण्डकों की आवास संख्या का निरूपण ९१, अर्थाधिकार ९२, नारकों के क्रोधोपयुक्त आदि निरूपणपूर्वक प्रथम स्थिति स्थानद्वार ९३, (नारकों की) जघन्यादि स्थिति ९४,'समय' का लक्षण ९५, अस्सी भंग ९५, नारकों के कहाँ, कितने भंग? ९५, द्वितीय-अवगाहना द्वार ९५, अवगाहना स्थान ९६, उत्कृष्ट अवगाहना ९६, जघन्य स्थिति तथा जघन्य अवगाहना के भंगों में अन्तर क्यों? ९६, तृतीय-शरीरद्वार ९७, शरीर ९७, वैक्रिय शरीर ९७, तैजस शरीर ९७, कार्मण शरीर ९७, चौथा-संहनन द्वार ९७ पाँचवाँ-संस्थान द्वार ९८, उत्तर वैक्रिय शरीर ९८, छठा-लेश्याद्वार ९९, सातवाँ-दृष्टिद्वार ९९, आठवाँ-ज्ञानद्वार १००, दृष्टि १००, तीनों दृष्टियों वाले नारकों में क्रोधोपयुक्तादि भंग १०१, तीन ज्ञान और तीन अज्ञान वाले नारक कौन और कैसे? १०१, ज्ञान और अज्ञान १०१, नौवा-योगद्वार १०१, दसवाँ-उपयोगद्वार १०२, नारकों का क्रोधोपयुक्तादि निरूपण पूर्वक नौवाँ एवं दसवाँ योग-उपयोगद्वार १०२, योग का अर्थ १०२, उपयोग का अर्थ १०२, ग्यारहवाँ-लेश्याद्वार १०३, लेश्या के सिवाय सातों नरकपृथ्वियों में शेष नौ द्वारों में समानता १०३, भवनपतियों क्रोधोपयुक्तादि वक्तव्यतापूर्वक स्थिति आदि दस द्वार १०३, एकेन्द्रियों की क्रोधोपयुक्त प्ररूपणापूर्वक स्थिति आदि द्वार १०४, विकलेन्द्रियों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक स्थिति आदि दस द्वार १०४, तिर्यंच पंचेन्द्रियों के क्रोधोपयुक्तादि कथनपूर्वक दस द्वार निरूपण १०५, मनुष्यों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक दस द्वार १०४, वाणव्यंतरों के क्रोधोपयुक्तपूर्वक दस द्वार १०४, भवनपति से लेकर वैमानिक देवों तक के क्रोधोपयुक्त आदि भंग निरूपणपूर्वक स्थिति अवगहना आदि दस द्वार प्ररूपण १०६, भवनपति देवों की प्रकृति नारकों की प्रकृति से भिन्न १०६, असंयोगी एक भंग १०६, द्विक् संयोगी छह भंग १०६, त्रिक् संयोगी बारह भंग १०६, चतु:संयोगी ८ भंग १०६, अन्य द्वारों में अन्तर १०६, पृथ्वीकायादि के दश द्वार और क्रोधादियुक्त के भंग १०६, विकलेन्द्रिय जीवों से नारकों में अन्तर १०७, तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों और नारकों में अन्तर १०७, मनुष्यों और नारकों के कथन में अन्तर १०७, चारों देवों सम्बन्धी कथन में अन्तर १०७। छठा उद्देशक-यावन्त सूर्य के उदयास्त क्षेत्र स्पर्शादि सम्बन्धी प्ररूपणा १०८, सूर्य कितनी दूर से दिखता है और क्यों? १०९, विशिष्ट पदों के अर्थ १०९, सूर्य द्वारा क्षेत्र का अवभासादि ११०, लोकान्त-अलोकान्तादि स्पर्श प्ररूपणा ११०, लोक-अलोक १११, चौबीस दण्डकों में अठारह-पाप-स्थान-क्रिया-स्पर्श प्ररूपणा १११, प्राणातिपातादि क्रिया के सम्बन्ध में निष्कर्ष ११३, कुछ शब्दों की व्याख्या ११३, रोह अनगार का वर्णन ११३, रोह अनगार और भगवान् से प्रश्न पूछने की तैयारी ११४, रोह अनगार के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर ११४, इन प्रश्नों के उत्थान के कारण ११७, अष्टविध लोकस्थिति का सदृष्टान्त निरूपण ११७, लोकस्थिति का प्रश्न और उसका यथार्थ समाधान ११९, कर्मों के आधार पर जीव ११९, जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध ११९, जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध तालाब [२८]
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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