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तृतीय शतक : उद्देशक-१]
[२६१ [७] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' (यों कहकर) द्वितीय गौतम (गोत्रीय) अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार करके जहाँ तृतीय गौतम (-गोत्रीय) वायुभूति अनगार थे, वहाँ आए। उनके निकट पहुँचकर वे, तृतीय गौतम वायुभूति अनगार से यों बोले हे गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि वाला है. इत्यादि समग्र वर्णन (चमरेन्द्र. उसके सामानिक. त्रायस्त्रिशक लोकपाल और अग्रमहिषी देवियों तक का सारा वर्णन) अपृष्टव्याकरण (प्रश्न पूछे बिना ही उत्तर) के रूप में यहाँ कहना चाहिए।
८. तए णं से तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे दोच्चस्स गोतमस्स अग्गिभूतिस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स भा० पं० परू० एतमटुं नो सद्दहति, नो पत्तियति, नो रोयति; एयमटुं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे उठाए उठेति, २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–एवं खलु भंते! मम दोच्चे गोतमे अग्गिभूती अणगारे एवमाइक्खति भासइ पण्णवेइ परूवेड्एवं खलु गोतमा! चमरे असुरिंदे असुरराया महिड्डीए जाव महाणुभावे से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं एवं तं चेव सव्वं अपरिसेसं भाणियव्वं जाव (सु. ३–६) अग्गसहिसीणं वत्तव्वता समत्ता। से कहमेतं भंते! एवं ?
. 'गोतमा' दि समणे भगवं महावीरे तच्चं गोतमं वायुभूतिं अणगारं एवं वदासि—जं णं गोतमा! तव दोच्चे गोयमे अग्गिभूती अणगारे एवमाइक्खइ ४-"एवं खलु गोयमा! चमरे ३ महिड्ढीए एवं तं चेव सव्वं जाव अग्गमहिसीणं वत्तव्वया समत्ता", सच्चे णं एस मढे, अहं पि णं गोयमा! एवमाइक्खामि भा० प० परू० । एवं खलु गोयमा! चमरे ३ जाव महिड्ढीए सो चेव बितिओ गमो भाणियव्वो जाव अग्गमहिसीओ, सच्चे णं एस मढे।
[८.प्र.] तदनन्तर अग्निभूति अनगार द्वारा कथित, भाषित, प्रज्ञापित (निवेदित) और प्ररूपित उपर्युक्त बात (अर्थ) पर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार को श्रद्धा नहीं हुई, प्रतीति नहीं हुई, न ही उन्हें रुचिकर लगी। अतः उक्त बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि न करते हुए वे तृतीय गौतम वायुभूति अनगार उत्थान—(शक्ति) द्वारा उठे और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ (उनके पास) आए और यावत् उनकी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भगवन्! द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार ने मुझ से इस प्रकार कहा, इस प्रकार भाषण किया, इस प्रकार बतलाया और प्ररूपित किया कि 'असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी बड़ी ऋद्धिवाला है, यावत् ऐसा महान् प्रभावशाली है कि वह चौंतीस लाख भवनावासों आदि पर आधिपत्य स्वामित्व करता हुआ विचरता है।' (यहाँ उसकी अग्रमहिषियों तक का शेष सब वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए); तो हे भगवन् ! यह बात कैसे है ?
[८३ उ.] 'हे गौतम!' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर ने तृतीय गौतम वायुभूति अनगार से इस प्रकार कहा–'हे गौतम! द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार ने तुम से जो इस प्रकार कहा, भाषित किया, बतलाया और प्ररूपित किया कि ' हे गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी