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________________ २६०] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देवा केमहिड्ढीया ? तायत्तीसिया देवा जहा सामाणिया तहा नेयव्वा। [५-१ प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव यदि इस प्रकार की महती ऋद्धि से सम्पन्न हैं, यावत् इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं, तो हे भगवन् ! उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के त्रायस्त्रिंशक देव कितनी बड़ी ऋद्धि वाले हैं? (यावत् वे कितना विकुवर्ण करने में समर्थ हैं ?) [५-१ उ.] (हे गौतम!) जैसा सामानिक देवों (की ऋद्धि एवं विकुर्वणा शक्ति) के विषय में कहा था, वैसा ही त्रायस्त्रिंशक देवों के विषय में कहना चाहिए। [२] लोयपाला तहेव। नवरं संखेज्जा दीव-समुद्दा भाणियव्वा। [५-२] लोकपालों के विषय में भी इसी तरह कहना चाहिए। किन्तु इतना विशेष कहना चाहिए कि लोकपाल (अपने द्वारा वैक्रिय किये हुए असुरकुमार देव-देवियों के रूपों से) संख्येय द्वीप-समुद्रों को व्याप्त कर सकते हैं। (किन्तु यह सिर्फ उनकी विकुर्वणाशक्ति का विषय है, विषयमात्र है। उन्होंने कदापि इस विकुर्वणाशक्ति का प्रयोग न तो किया है, न करते हैं और न ही करेंगे।) ६. जति णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो लोगपाला देवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभूविकुवित्तए, चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीओ देवीओ केमहिड्ढीयाओ जाव' केवतियं च णं पभू विकुवित्तए ? गोयमा! चमरस्स णं असुरिदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीओ देवीओ महिड्ढीयाओ जाव महाणुभागाओ। ताओ णं तत्थ साणं साणं भवणाणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं महत्तरियाणं, साणं साणं परिसाणं जाव एमहिड्ढीयाओ, अन्नं जहा लोगपालाणं (सु. ५ [२]) अपरिसेसं। [६ प्र.] भगवन् ! जब असुरेन्द्र असुरराज चमर के लोकपाल ऐसी महाऋद्धि वाले हैं, यावत् वे इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं, तब असुरेन्द्र असुरराज चमर की अग्रमहिषियाँ (पटरानी देवियाँ) कितनी बड़ी ऋद्धि वाली हैं, यावत् वे कितना विकुर्वण करने में समर्थ हैं ? । _ [६ उ.] गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर की अग्रमहिषी-देवियाँ महाऋद्धिसम्पन्न हैं, यावत् महाप्रभावशालिनी हैं। वे अपने-अपने भवनों पर, अपने-अपने एक हजार सामानिक देवों (देवीगण) पर, अपनी-अपनी (सखी) महत्तरिका देवियों पर और अपनी-अपनी परिषदाओं पर आधिपत्य (स्वामित्व) करती हुई विचरती हैं; यावत् वे अग्रमहिषियाँ ऐसी महाऋद्धिवाली हैं। इस सम्बन्ध में शेष सब वर्णन लोकपालों के समान कहना चाहिए। ७. सेवं भंते! २ त्ति भगवं दोच्चे गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, २ जेणेव तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे तेणेव उवागच्छति, २ तच्चं गोयमं वायुभूतिं अणगारं एवं वदासि–एवं खलु गोतमा! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्डीए तं चेव एवं सव्वं अपुटुवागरणं नेयव्वं अपरिसेसियं जाव अग्गमहिसीणं वत्तव्वया समत्ता। १.यहाँ 'जाव' पद से 'केमहज्जतीयाओ' इत्यादि पाठ स्त्रीलिंग पद सहित समझना।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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