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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [२५९ गोतमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो एगमेगे सामाणिए देवे वेउब्वियसमुग्घातेणं समोहण्णइ, २ जाव दोच्चं पि वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, २ पभू णं गोतमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो एगमेगे सामाणिए देवे केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए। अदुत्तरं च णं गोतमा! पभू चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे संथडे फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए। एस णं गोतमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो एगमेगस्स सामाणियदेवस्स अयमेतारूवे विसए विसयमेत्ते वुइए, णो चेव णं संपत्तीए विकुव्विसु वा विकुव्वति वा विकुव्विस्सति वा। [४प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर जब (इतनी) ऐसी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तब हे भगवन्! उस असुरराज असुरेन्द्र चमर के सामानिक देवों की कितनी बड़ी ऋद्धि है, यावत् वे कितना विकुर्वण करने में समर्थ हैं ? [४ उ.] हे गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव, महती ऋद्धि वाले हैं, यावत् महाप्रभावशाली हैं । वे वहाँ अपने-अपने भवनों पर, अपने-अपने सामानिक देवों पर तथा अपनी-अपनी अग्रमहिषियों (पटरानियों) पर आधिपत्य (सत्तधीशत्व-स्वामित्व) करते हुए, यावत् दिव्य (देवलोक सम्बन्धी) भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। ये इस प्रकार की बड़ी ऋद्धि वाले हैं, यावत् इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं 'हे गौतम! विकुर्वण करने के लिए असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक-एक सामानिक देव, वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है और यावत् दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है। जैसे कोई युवा पुरुष अपने हाथ से युवती स्त्री के हाथ को (कसकर) पकड़ता (हुआ चलता) है, तो वे दोनों दृढ़ता से संलग्न मालूम होते हैं अथवा जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी (नाभि) आरों से सुसम्बद्ध (आयुक्त संलग्न) होती है, इसी प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर का प्रत्येक सामानिक देव इस सम्पूर्ण (या पूर्ण शक्तिमान्) जम्बूद्वीप नामक द्वीप को बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है। इसके उपरान्त हे गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक-एक सामानिक देव, इस तिर्यग्लोक के असंख्य द्वीपों और समुद्रों तक के स्थल को बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है। (अर्थात् वह इतने रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है कि असंख्य द्वीप-समुद्रों तक का स्थल उन विकुर्वित देव-देवियों से ठसाठस भर जाए।) हे गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर के प्रत्येक सामानिक देव में (पूर्वोक्त कथनानुसार) विकुर्वण करने की शक्ति है, वह विषयरूप है, विषयमात्र शक्तिमात्र है, परन्तु (उक्त शक्ति का) प्रयोग करके उसने न तो कभी विकुर्वण किया है, न ही करता है और न ही करेगा।' ५.[१] जइ णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो सामाणिया देवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररण्णो तायत्तीसिया
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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