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________________ २५८] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) (भगवान् की) पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले (पूछने लगे)-"भगवन् ! असुरों का इन्द्र असुरराज चमरेन्द्र कितनी बड़ी ऋद्धि वाला है ? कितनी बड़ी द्युति-कान्ति वाला है ? कितने महान् बल से सम्पन्न है ? कितना महान् यशस्वी है ? कितने महान् सुखों से सम्पन्न है ? कितने महान् प्रभाव वाला है ? और वह कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ?" [३ उ.] गौतम! असुरों का इन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला है यावत् महाप्रभावशाली है। वह वहाँ चौंतीस लाख भवनावासों पर, चौंसठ हजार सामानिक देवों पर और तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों पर आधिपत्य (सत्ताधीशत्व-स्वामित्व) करता हुआ यावत् विचरण करता है। (अर्थात्-) वह चमरेन्द्र इतनी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत् ऐसे महाप्रभाव वाला है तथा उसकी विक्रिया करने की शक्ति इस प्रकार है—हे गौतम! जैसे—कोई युवा पुरुष (अपने) हाथ से युवती स्त्री के हाथ को (दृढ़तापूर्वक) पकड़ता (पकड़ कर चलता) है, अथवा जैसे गाड़ी के पहिये (चक्र) की धुरी (नाभि) आरों से अच्छी तरह जुड़ी हुई (आयुक्त संलग्न) एवं सुसम्बन्द्ध होती है, इसी प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर, क्रिय-समुद्घात द्वारा समवहत होता है, समवहत होकर संख्यात योजन तक लम्बा दण्ड (बनाकर) निकालता है तथा उसके द्वारा रत्नों के, यावत् रिष्ट रत्नों के स्थूल पुद्गलों को झाड़ (गिरा) देता है और सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है। फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है। (ऐसी प्रक्रिया से) हे गौतम! वह असुरेन्द्र असुरराज चमर-बहुत-से (स्वशरीर प्रतिबद्ध) असुरकुमार देवों और (असुरकुमार-) देवियों द्वारा (इस तिर्यग्लोक में) परिपूर्ण (केवलकल्प) जम्बूद्वीप नामक द्वीप को आकीर्ण (व्याप्त), व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ करने में समर्थ है (ठसाठस भर सकता है)। हे गौतम! इसके उपरान्त वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, अनेक असुरकुमार-देव-देवियों द्वारा इस तिर्यग्लोक में भी असंख्यात द्वीपों और समुद्रों तक के स्थल को आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है। अर्थात्-चमरेन्द्र अपनी वैक्रिय शक्ति से दूसरे रूप इतने अधिक विकुर्वित कर सकता है, जिनसे असंख्य द्वीप-समुद्रों तक का स्थल भर जाता है।) हे गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर की (ही सिर्फ) ऐसी (पूर्वोक्त प्रकार की) शक्ति है, विषय है, विषयमात्र है, परन्तु चमरेन्द्र ने इस (शक्ति की) सम्प्राप्ति से कभी (इतने रूपों का) विकुर्वण किया नहीं, न ही करता है, और न ही करेगा। ४. जति णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभूविकुवित्तए, चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररण्णो सामाणिया देवा केमहिड्ढीया जाव केवतियं च णं पभू विकुवित्तए ? गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो सामाणिया देवा महिड्ढीया जाव महाणुभागा। ते णं तत्थ साणं साणं भवणाणं, साणं साणं सामाणियाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, जाव' दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति। एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए से जहानामए जुवति जुवाणं हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरयाउत्ता सिया, एवामेव १. 'जाव' पद से यहाँ भी सू. ३ की तरह... अन्नेसि च बहूणं...दिव्वाई' तक का पाठ समझना।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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