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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [२५७ विवेचन प्रथम उद्देशक का उपोद्घात–प्रथम उद्देशक कब, कहाँ (किस नगरी में, किस जगह), किसके द्वारा कहा गया है? इसे बताने हेतु भूमिका के रूप में यह उपोद्घात प्रस्तुत किया गया है। चमरेन्द्र और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणा शक्ति ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूती नामं अणगारे गोतमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी–चमरे णं भंते! असुरिंदे असुरराया केमहिड्डीए ? केमहज्जुतीए ? केमहाबले ? केमहायसे ? केमहासोक्खे ? केमहाणुभागे ? केवतियं च णं पभू विकुवित्तए ? गोयमा! चमरे णं असुरिंदे असुरराया महिड्डीए जाव महाणुभागे।से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससतसहस्साणं, चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं जावर विहरति।एमहिड्डीए जाव एमहाणुभागे। एवतियं च णं पभूविकुव्वित्तए से जहानामए जुवती जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्तासिता, एवामेव गोयमा! चरमे असुरिदे असुरराया वेउव्वियसमुग्घातेणं समोहण्णति, २ संखेज्जाइं जोअणाइंदंडं निसिरति, तं जहारतणाणंजाव रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेति, २ अहासुहुमे पोग्गले परियाइयति, २ दोच्चं पि वेउव्विय-समुग्घाएणं समोहण्णति, २ पभू णं गोतमा! चमरे असुरिंदे असुरराया केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए। अदुत्तरं च णं गोतमा! पभू चमरे असुरिंदे असुरराया तिरियमसंखेजे दीव-समुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे अवगाढावगाढेकरेत्तए।एसणंगोतमा! चरमस्स असरिदस्सअसररण्णो अयमेतारूवे विसए विसयमेत्ते वुइए णो चेव णं संपत्तीए विकुव्विसु वा, विकुव्वति वा, विकुव्विस्सति वा। [३ प्र.] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के द्वितीय अन्तेवासी (शिष्य) अग्निभूति नामक अनगार (गणधर) जिनका गोत्र गौतम था, तथा जो सात हाथ ऊँचे (लम्बे) थे, यावत् 'चिन्तां प्रकृतसिद्धयर्थमुपोद्घातं विदुर्बुधाः'-साहित्यकारों द्वारा की गई इस परिभाषा के अनुसार प्रस्तुत (वक्ष्यमाण) अर्थ (बात) को सिद्ध-प्रमाणित करने हेतु किये गये चिन्तन या कथन को विद्वान् उपोद्घात कहते 'जाव' पद से औपपातिकसूत्र के उत्तरार्द्ध में प्रथम और द्वितीय सूत्र में उक्त इन्द्रभूति गौतम स्वामी के विशेषणों से युक्त पाठ समझना चाहिए। 'जाव' पद से 'चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्डं चउसट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं चमरचंचारायहाणिवत्थव्वाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्त भट्टित्तं आणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाऽऽहयनट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडुप्प-वाइयरवेणंदिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे;' यह पाठ समझना चाहिए। 'जाव' पद से 'वइराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगब्भाणं पुलयाणं सोगंधियाणं जोतीरसाणं अंकाणं अंजणाणं जायरूवाणं अंजणपुलयाणं फलिहाणं' यह पाठ समझना चाहिए।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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