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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५] [२२९ अवस्था प्राप्त होने पर अन्त में सिद्धि-मुक्ति प्राप्त होती है।) गाथा का अर्थ इस प्रकार है १.(पर्युपासना का प्रथम फल) श्रवण, २.(श्रवण का फल) ज्ञान, ३. (ज्ञान का फल) विज्ञान, ४. (विज्ञान का फल) प्रत्याख्यान, ५. (प्रत्याख्यान का फल) संयम, ६. (संयम का फल) अनाश्रवत्व, ७. (अनाश्रवत्व का फल) तप, ८. (तप का फल) व्यवदान, ९. (व्यवदान का फल) अक्रिया, और १०. (अक्रिया का फल) सिद्धि है। विवेचन–श्रमण-माहन-पर्युपासना का अनन्तर और परम्पर फल प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न विभागों द्वारा श्रमण और माहन की पर्युपासना का साक्षात् फल श्रवण और तदनन्तर उत्तरोत्तर ज्ञानादि फलों के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। श्रमण जो श्रम (आत्मगुणों के लिए स्वयं श्रम या तप), सम (प्राणिमात्र को आत्मवत् मानने) और शम (विषय-कषायों के उपशमन) से युक्त हो, वह साधु। माहन जो स्वयं किसी जीव का हनन न करता हो, और दूसरों को 'मत मारो' ऐसा उपदेश देता हो। उपलक्षण से मूलगुणों के पालक को 'माहन' कहा जाता है। अथवा 'माहन' व्रतधारी श्रावक को भी.कहते हैं। श्रमण-माहन-पर्युपासना से अन्त में सिद्धि-श्रमणों की सेवा करने से शास्त्र-श्रवण, उससे श्रुतज्ञान, तदनन्तर श्रुतज्ञान से विज्ञान (हेय-ज्ञेय-उपादेय का विवेक) प्राप्त होता है। जिसे ऐसा विशेष ज्ञान होता है, वही पापों का प्रत्याख्यान या हेय का त्याग कर सकता है। प्रत्याख्यान करने से मन, वचन, काय पर या पृथ्वीकायादि पर संयम रख सकता है। संयमी व्यक्ति नये कर्मों को रोक देता है। इस प्रकार का लघुकर्मी व्यक्ति तप करता है। तप से पुराने कर्मों की निर्जरा (व्यवदान) होती है। यों कर्मों की निर्जरा करने से व्यक्ति योगों का निरोध कर लेता है, योग निरोध होने से क्रिया बिल्कुल बंद हो जाती है, और अयोगी (अक्रिय) अवस्था से अन्त में मुक्ति (सिद्धि) प्राप्त हो जाती है। यह है—श्रमणसेवा से उत्तरोत्तर १० फलों की प्राप्ति का लेखा-जोखा। । राजगृह का गर्मजल का स्रोत : वैसा है या ऐसा? २७.अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति भासेंति पण्णवेंति परूवेंति एवं खलु रायगिहस्स नगरस्स बहिया वेभारस्स पव्वयस्स अहे एत्थ णं महं एगे हरए अप्पे (अधे)२ पण्णत्ते, अणेगाइं, जोयणाई-आयाम-विक्खंभेणं नाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए जाव पडिरूपे। तत्थ णं बहवे ओराला बलाहया संसेयंति सम्मुच्छंति वासंति तव्वतिरित्ते य णं सया समियं उसिणे २ आउकाए अभिनिस्सवइ। से कहमेतं भंते! एवं ? ___ गोयमा! जं णं ते अण्णउत्थिया एयमाइक्खंति जाव जे ते एवं परूवेंति मिच्छं ते १. भगवतीसूत्र अ., वृत्ति, पत्रांक १४१ . २. 'अघे' के स्थान में 'अप्पे' पाठ ही संगत लगता है, अर्थ होता है आप्य-पानी का।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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