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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५] [२२७ [४]अहं पिणंगोयमा! एवमाइक्खामि भासेमि पण्णवेमि परूवेमि-पुव्वतवेणं देवा देवलोएसू उववजंति, पुव्वसंजमेणं देवा देवलोएसु उववजंति, कम्मियाए देवा देवलोएसु उववजंति, संगियाए देवा देवलोएसु उववजंति, पुव्वतवेणं पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो! देवा देवलोएसु उववज्जंति; सच्चे णं एसमढे, णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए। __ [२५-४ उ.] हे गौतम! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बताता हूँ और प्ररूपणा करता हूँ कि पूर्वतप के कारण से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, पूर्वसंयम के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, कर्मिता (कर्मक्षय होने बाकी रहने) से देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं तथा संगिता (आसक्ति या रागभाव) के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। (निष्कर्ष यह है कि) आर्यो! पूर्वतप से, पूर्वसंयम से, कर्मिता और संगिता से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यही बात सत्य है; इसलिए उन्होंने कही है, किन्तु अपनी अहंता प्रदर्शित करने के लिए नहीं कही। विवेचन स्थविरों की उत्तरप्रदान-समर्थता आदि के विषय में गौतम के प्रश्न और भगवान् द्वारा समाधान प्रस्तुत दो सूत्रों (२४ और २५) में श्री गौतमस्वामी ने राजगृह में भिक्षाटन करते समय पार्खापत्यीय स्थविरों की ज्ञानशक्ति के सम्बन्ध में जो सुना था, भगवान् महावीर से उन्होंने विभिन्न पहलुओं से उनके सम्बन्ध में जिज्ञासावश पूछकर जो यथार्थ समाधान प्राप्त किया था उसका सांगोपांग निरूपण है। _ 'समिया' आदि पदों की व्याख्या समितिया-सम्यक, अथवा समिति सम्यक् प्रकार से इत अर्थात् ज्ञात, अथवा श्रमित-शास्त्रज्ञान में श्रम किये हुए अभ्यस्त।आउज्जिय-आयोगिक उपयोगवान् अर्थात् ज्ञानी। पलिउज्जिय-प्रायोगिक अथवा परियोगिक–परिज्ञानी-सर्वतोमुखी ज्ञानवान्। एसणमणेसणं-यतना (एषणा) पूर्वक की हुई भिक्षाचरी में लगे हुए दोष का। श्रमण-माहनपर्युपासना का अनन्तर और परम्पर फल २६. [१] तहारूवं णं भंते! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पज्जुवासणा ? गोयमा! सवणफला। __ [२६-१ प्र.] भगवन् ! तथारूप (जैसा वेश है, तदनुरूप गुणों वाले) श्रमण या माहन की पर्युपासना करने वाले मनुष्य को उसकी पर्युपासना का क्या फल मिलता है ? [२६-१ उ.] गौतम! तथारूप श्रमण या माहन के पर्युपासक को उसकी पर्युपासना का फल होता है-श्रवण (सत्-शास्त्र श्रवणरूप फल मिलता है)। [२] से णं भंते! सवणे किंफले? णाणफले। [२६-२ प्र.] भगवन्! उस श्रवण का क्या फल होता है ? १. भवगतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १४०
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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