________________
२२६]
[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा-चर्या की विधिपूर्वक भिक्षाटन कर रहा था, उस समय बहुतसे लोगों के मुख से इस प्रकारके उद्गार सुने कि तुंगिका नगरी के बाहर (स्थित) पुष्पवतिक नामक उद्यान में पार्वापत्यीय स्थविर भगवन्त पधारे थे, उनसे वहाँ के श्रमणोपासकों ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे थे कि 'भगवन्! संयम का क्या फल है ? और तप का क्या फल है ?' यह सारा वर्णन पहले (सू. १७) की तरह कहना चाहिए; यावत् यह बात सत्य है, इसलिए कही है, किन्तु हमने अहं (आत्म) भाव के वश होकर नहीं कही।"
[२] "तं पभू णं भंते! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एतारूवाई वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अप्पभू ?, समिया णं भंते! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासगाणं इमाइं एतारूवाइं वागरणाइं वागरित्तए ? उदाहु असमिया ?, आउज्जिया णं भंते! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाइं वागरणाइं वागरित्तए ? उदाहु अणाउज्जिया ?, पलिउज्जिया णं भंते! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाइं वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अपलिउज्जिया ?, पुव्वतवेणं अज्जे! देवा देवलोएसु उववजंति, पुव्वसंजमेणं० कम्मियाए०, संगियाए०, पुव्वतवेणं पुव्वसंजमेणं कम्यिाए संगियाए अज्जो! देवा देवलोएसु उववजंति। सच्चे णं एसमढे णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए ?"
__[२५-२ प्र.] (यों कहकर श्री गौतमस्वामी ने पूछा-) "हे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों के प्रश्नों के ये और इस प्रकार के उत्तर देने में समर्थ हैं, अथवा असमर्थ हैं ? भगवन्! क्या वे स्थविर भगवन् उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में सम्यक्रूप से ज्ञानप्राप्त (समित या सम्पन्न) (अथवा श्रमित-शास्त्राभ्यासी या अभ्यस्त) हैं, अथवा असम्पन्न या अनभ्यस्त हैं ? (और) हे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में उपयोग वाले हैं या उपयोग वाले नहीं हैं ? भगवन्! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में परिज्ञानी (विशिष्ट ज्ञानवान्) हैं, अथवा विशेष ज्ञानी नहीं हैं कि आर्यो; पूर्वतप से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, तथा पूर्वसंयम से, कर्मिता से और संगिता (आसक्ति) के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यह बात सत्य है, इसलिए हम कहते हैं, किन्तु अपने अहंभाव वश नहीं कहते हैं ?" .
[३]पभूणं गोतमा! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइंएयारूवाइंवागरणाइं वागरेत्तए, णो चेव णं अप्पभू, तह चेव नेयव्वं अविसेसियं जाव पभू समिया आउज्जिया पलिउज्जिया जाव सच्चे णं एसमढे णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए।
[२५-३ उ.] (महावीर प्रभू ने उत्तर दिया-) हे गौतम! वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार के उत्तर देने में समर्थ हैं, असमर्थ नहीं; (शेष-सब पूर्ववत् जानना) यावत् वे सम्यक् रूप से सम्पन्न (समित) हैं अथवा अभ्यस्त (अमित) हैं; असम्पन्न या अनभ्यस्त नहीं; वे उपयोग वाले हैं, अनुपयोग वाले नहीं; वे विशिष्ट ज्ञानी हैं, सामान्य ज्ञानी नहीं। यह बात सत्य है, इसलिए उन स्थविरों ने कही है, किन्तु अपने अहंभाव के वश होकर नहीं कही।