SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५] [२२५ अणण्हयफले, तवेणं वोदाणफले तं चेव जाव (सु. १७) पुव्वतवेणं पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो! देवा देवलोएसु उववज्जति, सच्चे णं एसमठे, णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए" से कहमेतं मन्ने एवं? [२४] उस समय राजगृह नगर में (पूर्वोक्त विधिपूर्वक) भिक्षाटन करते हुए भगवान् गौतम ने बहुत-से लोगों के मुख से इस प्रकार के उद्गार (शब्द) सुने हे देवानुप्रिय! तुंगिका नगरी के बाहर (स्थित) पुष्पवतिक नामक उद्यान (चैत्य) में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य (पार्वापत्यीय) स्थविर भगवन्त पधारे थे, उनसे वहाँ के (श्रमण भगवान् महावीर के) श्रमणोपासकों ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे थे कि 'भगवन् ! संयम का क्या फल है, भगवन्! तप का क्या फल है?' तब (इनके उत्तर में) उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा था-"आर्यो! संयम का फल अनाश्रवत्व (संवर) है, और तप का फल व्यवदान (कर्मों का क्षय) है।" यह सारा वर्णन पहले (सू. १७) की तरह कहना चाहिए, यावत्-'हे आर्यो! पूर्वतप से, पूर्वसंयम से, कर्मिता (कर्म शेष रहने से) और संगिता (रागभाव या असक्ति) से देवता देवलोक में उत्पन्न होते हैं। यह बात सत्य है, इसलिए हमने कही है, हमने अपने अहंभाव (आत्मभाव) वश यह बात नहीं कही है। तो मैं (गौतम) यह (इस जनसमूह की) बात कैसे मान लूँ ?' २५. [१] तए णं से समणे भगवं गोयमे इमीसे कहाए लद्धढे समाणे जायसड्ढे जाव समुप्पन्नकोतुहल्ले अहपज्जत्तं समुदाणं गेण्हति, २ रायगिहातो नगरातो पडिनिक्खमति, २ अतुरियं जाव सोहेमाणे जेणेव गुणसिलाए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा०, २ सम० भ० महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमति, एसणमणेसणं आलोएति, २ भत्तपाणं पडिदंसेति, २ समणं भ० महावीरं जाव एवं वदासि-"एवं खलु भंते! अहं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजणसई निसामेमि "एवं खलु देवाणुप्पिया! तुंगियाए नगरीए बहिया पुष्फवईए चेइए पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाइं एतारूवाइं वागरणाइं पुच्छिता—'संजमे णं भंते! किंफले ? तवे किंफले ? तं० चेव जाव (सु.१७) सच्चे णं एसमठे, णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए।' [२५-१] इसके पश्चात् श्रमण भगवान् गौतम ने इस प्रकार की बात लोगों के मुख से सुनी तो उन्हें [उस बात की जिज्ञासा में] श्रद्धा उत्पन्न हुई, और यावत् (उस बात के लिए) उनके मन में कुतूहल भी जागा। अतः भिक्षाविधिपूर्वक आवश्यकतानुसार भिक्षा लेकर वे राजगृहनगर (की सीमा) से बाहर निकले और अत्वरित गति से यावत् (ईर्यासमितिपूर्वक) ईर्या-शोधन करते हुए जहाँ गुणशीलक चैत्य था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास आए। फिर उनके निकट उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण किया, (भिक्षााचर्या में लगे हुए) एषणादोषों की आलोचना की, फिर (लाया हुआ) आहार-पानी भगवान् को दिखाया। तत्पश्चात् श्री गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यावत् इस प्रकार निवेदन किया "भगवन् ! मैं आपसे आज्ञा प्राप्त करके राजगृहनगर
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy