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________________ २१२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में कितने समय तक रहता है ? [६ उ.] गौतम! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक 'योनिभूत' रूप में रहता है। विवेचन उदकगर्भ आदि की कालस्थिति का विचार–प्रस्तुत पांच सूत्रों (२ से ६ तक) में उदकगर्भ, तिर्यग्योनिकगर्भ, मानुषीगर्भ, काय-भवस्थ एवं योनिभूत बीज की कालस्थिति का निरूपण किया गया है। उदकगर्भ : कायस्थिति और पहचान कालान्तर में पानी बरसने के कारणरूप पुद्गलपरिणाम को 'उदकगर्भ' कहते हैं। उसका अवस्थान (स्थिति) कम से कम एक समय, उत्कृष्टतः छह मास तक होता है। अर्थात् वह कम से कम एक समय बाद बरस जाता है, अधिक से अधिक छह महीने बाद बरसता है। 'मार्गशीर्ष और पौष मास में दिखाई देने वाला सन्ध्याराग, मेघ की उत्पत्ति (या कुण्डल से मुक्त मेघ) या मार्गशीर्ष मास में ठण्ड न पड़ना और पौष मास में अत्यन्त हिमपात होना, ये सब उदकगर्भ के चिह्न हैं। काय-भवस्थ माता के उदर में स्थित निजदेह (गर्भ के अपने शरीर) में जन्म (भव) को 'कायभव' कहते हैं, उसी निजकाय में जो पनः जन्म ले. उसे कायभवस्थ कहते हैं। जैसे कोई जीव माता के उदर में गर्भरूप में आकर उसी शरीर में बारह वर्ष तक रहकर वहीं मर जाए, फिर अपने द्वारा निर्मित उसी शरीर में उत्पन्न होकर पुनः बारह वर्ष तक रहे। यों एक जीव अधिक से अधिक २४ वर्ष तक 'काय-भवस्थ' के रूप में रह सकता है। ___ योनिभूतरूप में बीज की कालस्थिति—मनुष्य या तिर्यंचपञ्चेन्द्रिय का मानुषी या तिर्यञ्ची की योनि में गया हुआ वीर्य बारह मुहूर्त तक योनिभूत रहता है। अर्थात् उस वीर्य में बारह मुहूर्त तक सन्तानोत्पादन की शक्ति रहती है। मैथुनप्रत्ययिक सन्तानोत्पत्ति संख्या एवं मैथुनसेवन से असंयम का निरूपण ७. एगजीवे णं भंते! एगभवग्गहणेणं केवतियाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छति ? गोयमा! जहन्नेणं इक्कस्स वा दोण्हं वा तिण्हं वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छति। [७ प्र.] भगवन्! एक जीव, एक भव की अपेक्षा कितने जीवों का पुत्र हो सकता है ? [७ उ.] गौतम! एक जीव, एक भव में जघन्य एक जीव का, दो जीवों का अथवा तीन जीवों का, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ तक) जीवों का पुत्र हो सकता है। ८[१] एगजीवस्स णं भंते! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा! जहन्नेणं इक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं १. पौषे समार्गशीर्षे, सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः। नात्यर्थं मार्गशिरे शीतं, पौषेऽतिहिमपातः॥ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १३३
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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