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द्वितीय शतक : उद्देशक - ५]
पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ।
[ २ ] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ जाव हव्वमागच्छंति ?
गोयमा ! इत्थीए य पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नामं संजोए समुपज्जइ । ते दुहओ सिणेहं संचिणंति, २ तत्थ णं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति। से तेणट्ठेणं जाव हव्वमागच्छंति । [८-१ प्र.] भगवन्! एक जीव के एक भव में कितने जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते
हैं ?
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[८-१ उ.] गौतम! जघन्य एक, दो अथवा तीन जीव, और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं।
[८-२ प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य एक. याक्त् दो लाख से नौ लाख तक जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं ?
[८-२ उ.] हे गौतम! कर्मकृत (नामकर्म से निष्पन्न अथवा कामोत्तेजित ) योनि में स्त्री और पुरुष का जब मैथुनवृत्तिक (सम्भोग निमित्तक) संयोग निष्पन्न होता है, तब उन दोनों के स्नेह (पुरुष के वीर्य और स्त्री के रक्त = रज) का संचय (सम्बन्ध) होता है, फिर उसमें से जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्ररूपे में उत्पन्न होते हैं । हे गौतम! इसीलिए पूर्वोक्त कथन किया गया है।
९. मेहुणं भंते! सेवमाणस्स केरिसिए असंजमे कज्जइ ?
गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे रूवनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कणएणं २ समभिधं - सेज्जा । एरिसए णं गोयमा! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ ।
सेवं भंते! सेवं भंते! जाव विहरति ।
[९ प्र.] भगवन्! मैथुनसेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम होता है ?
[९ उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपी हुई सोने की (या लोहे की सलाई ( डालकर, उस) से बांस की रूई से भरी हुई नली या बूर नामक वनस्पति से भरी नली को जला (विध्वस्त कर) डालता है, हे गौतम! ऐसा ही असंयम मैथुन सेवन करते हुए जीव के होता है।
'हे भगवन्! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' ऐसा कहकर — यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं ।
१.
२.
आधुनिक शरीर विज्ञान के अनुसार पुरुष के शुक्र में करोड़ों जीवाणु होते हैं, किन्तु वे धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और एक या दो जीवाणु जीवित रहते हैं जो गर्भ में आते हैं।
"कणएणं" कनकः लोहमयः ज्ञेयः । कनक शब्द लोहमयी शलाका अर्थ में समझ लेना चाहिए। भगवती. प्रमेय चन्द्रिका टीका भा. २, पृ ८३१ में 'कनकस्य शलाकार्थो लभ्यते ' लिखा है । - भग. मू. पा. टि., पृ. ९९