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द्वितीय शतक : उद्देशक-१]
[१९९ भगवन् ! आप देवानुप्रिय के शिष्य स्कन्दक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, प्रकृति के विनीत, स्वभाव से उपशान्त, अल्पक्रोध-मान-माया-लोभ वाले, कोमलता और नम्रता से युक्त, इन्द्रियों को वश में करने वाले, भद्र और विनीत थे, वे आपकी आज्ञा लेकर स्वयमेव पंचमहाव्रतों का आरोपण करके, साधुसाध्वियों से क्षमापना करके, हमारे साथ विपुलगिरि पर गये थे, यावत् वे पादपोपगमन संथारा करके कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं। ये उनके धर्मोपकरण हैं।
विवेचन स्कन्दकमुनि द्वारा संल्लेखनाभावना, अनशन ग्रहण और समाधिमरण प्रस्तुत पांच सूत्रों (४७ से ५१ तक) में स्कन्दकमुनि द्वारा संल्लेखनापूर्वक भक्तप्रत्याख्यान अनशन की भावना से लेकर उनके समाधिमरण तक का वर्णन किया गया है। संल्लेखना-संथारा (अनशन) से पूर्वापर सम्बन्धित विषयक्रम इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है—(१) धर्मजागरणा करते हुए स्कन्दकमुनि के मन में संल्लेखनापूर्वक पादपोपगमन संथारा करने की भावना, (२) भगवान् से संल्लेखना-संथारा करने की अनुज्ञा प्राप्त की, (३) समस्त साधु-साध्वियों से क्षमायाचना करके योग्य स्थविरों के साथ विपुलाचल पर आरोहण, एक पृथ्वीशिलापट्ट पर दर्भसंस्तारक, विधिपूर्वक यावज्जीवन संल्लेखनापूर्वक अनशन ग्रहण किया (४),एक मास तक संल्लेखना-संथारा की आराधना करके समाधिपूर्वक मरण को प्राप्त हुए। (५) तत्पश्चात् उनके साथी स्थविरों ने उनके अवशिष्ट धर्मोपकरण ले जाकर भगवान् को स्कन्दक अनगार की समाधिमरण प्राप्ति की सूचना दी।
कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ -फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि-कोमल उत्पलकमलों के विकसित हो जाने पर। अहापंडुरे पभाए-निर्मल प्रभात हो जाने पर। पाउप्पभायाए प्रातःकाल। कडाड-कत योगी आदि प्रतिलेखनादिया आलोचन–प्रतिक्रमणादि योगों (क्रियाओं) में जो कत-कशल हैं, वे कृतयोगी आदि शब्द से प्रियधर्मी या दृढ़धर्मी। संपलिअंकनिसन्ने पद्मासन (पर्यंकासन) से बैठे हुए। संलेहणाझूसणाझूसियस्स-जिसमें कषायों तथा शरीर को कृश किया जाता है, वह है संल्लेखना तप, जिसकी जोषणा–सेवना से जुष्ट-सेवित अथवा जिसने संल्लेखना तप की सेवा से कर्म क्षपित (झुषित) कर दिये हैं। सटिभत्ताई अणसणाए छेइत्ता अनशन से साठ भक्त (साठ बार-टंक भोजन) छोड़कर। परिणिव्वाणवत्तियं-परिनिर्वाण मरण अथवा मृतशरीर का परिष्ठापन। वही जिसमें निमित्त है—वह परिनिर्वाणप्रत्ययिक। स्कन्दक की गति और मुक्ति के विषय में भगवत्-कथन
५३. भंते!'त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उववण्णे?
_ 'गोयमा!' इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी—एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव से णं मए अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाइं आरोवित्ता तं चेव सव्वं अविसेसियं नेयव्यं जाव (सु. ५०-५१) आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णे।तत्थ णं एगइयाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती प०।तत्थ णं खंदयस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। १. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक १२६ से १२९ तक