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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (अर्थात् 'नमोत्थुणं' के पाठ का दो बार उच्चारण किया ।) तत्पश्चात् कहा—' वहाँ रहे हुए भगवान् महावीर स्वामी को यहाँ रहा हुआ (स्थित) मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ विराजमान श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यहाँ पर रहे हुए मुझ को देखें ।' ऐसा कहकर भगवान् को वन्दना - नमस्कार किया । वन्दनानमस्कार करके वे इस प्रकार बोले—'मैंने पहले भी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात का त्याग किया था, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह ही पापों का त्याग किया था। इस समय भी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों का त्याग करता हूँ और यावज्जीवन के लिए अशन, पान, , खादिम और स्वादिम, इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। तथा यह मेरा शरीर, जो कि मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय है, यावत् जिसकी मैंने बाधा — पीड़ा, रोग, आतंक, परीषह और उपसर्ग आदि रक्षा की है, ऐसे शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक व्युत्सर्ग (ममत्व - विसर्जन) करता हूँ, यों कहकर संलेखना संथारा करके, भक्त-पान का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन ( वृक्ष की कटी हुई शाखा की तरह स्थिर रहकर ) अनशन करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरण करने लगे ।
५१. तए ण से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतीए सामाइयमादियाई एक्कारस्स अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सट्टिं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते आणुपुव्वी कालगए ।
[५१] इसके पश्चात् स्कन्दक अनगार, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथारूप स्थविरों के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन, पूरे बारह वर्ष तक श्रमण- पर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को संलिखित (सेवित = युक्त) करके साठ भक्त का त्यागरूप अनशन करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त करके क्रमशः कालधर्म ( मरण) को प्राप्त हुए ।
५२. तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अणगारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति, २ पत्त - चीवराणि गिण्हंति, २ विपुलाओ पब्वयाओ सणियं २ पच्चोरुहंति, २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, २ समणं भगवं महवीरं वंदंति नमंसंति, २ एवं वदासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगइभद्दए पगतिविणीए पगतिउवसंते पगति पयणुकोह - माण- माया - लोभे मिउ-मद्दवसंपन्ने अल्लीणे भद्दए विणीए । सेणं देवाणुप्पिएहिं अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाणि आरोवित्ता समणे य समणीओ य खामेत्ता, अम्हेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं तं चेव निरवसेसं जाव (सु. ५० ) अहाणुपुवी कालगए । इमे य से आयारभंडए ।
[५२] तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने स्कन्दक अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर उनके परिनिर्वाण (समाधिमरण) सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया। फिर उनके पात्र, वस्त्र (चीवर) आदि उपकरणों को लेकर वे विपुलगिरि से शनै: शनै: नीचे उतरे। उतरकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए । भगवान् को वन्दना - नमस्कार कर उन स्थविर मुनियों ने इस प्रकार कहा——— भगवन्! आप देवानुप्रिय के शिष्य स्कन्दक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, प्रकृति के विनीत, स्वभाव