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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [१९७ (भगवान्-) हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो; इस धर्मकार्य में विलम्ब मत करो। ५०. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे हठ्ठतुट्ठ० जाव हयहियए उट्ठाए उठेइ, २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ जाव' नमंसित्ता सयमेव पंच महव्वयाई आरुहेइ, २ त्ता समणे य समणीओ य खामेइ, २ त्ता तहारूवेहि थेरेहिं कडाऽऽईहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं २ दुरूहेइ, २ मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलावट्टयं पडिलेहेइ, २ उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, २ दब्भसंथारयं संथरेइ, २ दब्भसंथारयं दुरूहेइ, २ दब्भसंथारोवगते पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे करयलपरिरग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वदासि नमोऽत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगते, पासउ मे भयवं तत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ नमसति, २ एवं वदासी—"पुव्विं पि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणातिवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले पच्चखाए जावज्जीवाए, इयाणिं वि य णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि। एवं सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विहं पि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जं पि य इमं सरीरं इठे कंतं पियं जाव फुसंतु त्ति कट्ट एयं पिणं चरिमेहिं उस्सासनीसासेहिं वोसिरामि"त्ति कट्ट संलेहणाझूसणाझूसिए भत्त-पाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरति। [५०] तदनन्तर श्री स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर अत्यन्त हर्षित, सन्तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हुए। फिर खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की और वन्दना-नमस्कार करके स्वयमेव पांच महाव्रतों का आरोपण किया। फिर श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की, और तथारूप योग्य कृतादि स्थविरों के साथ शनैः शनैः विपुलाचल पर चढ़े। वहाँ मेघ-समूह के समान काले, देवों के उतरने योग्य स्थानरूप एक पृथ्वी-शिलापट्ट की प्रतिलेखना की तथा उच्चार-प्रस्रवणादि परिष्ठापनभूमि की प्रतिलेखना की। ऐसा करके उस पृथ्वीशिलापट्ट पर डाभ का संथारा बिछाकर, पूर्वदिशा की ओर मुख करके, पर्यंकासन से बैठकर, दसों नख सहित दोनों हाथों को मिलाकर मस्तक पर रखकर, (मस्तक के साथ) दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले—'अरिहन्त भगवन्तों को, यावत् जो मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं, उन्हें नमस्कार हो। तथा अविचल शाश्वत सिद्ध स्थान को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार हो। १. यहाँ 'जाव' पद 'वंदइ नमसइ वंदित्ता' पाठ का सूचक है। २. यहाँ जाव 'पद''आइगराणं' से 'संपत्ताणं' तक के पाठ का सूचक है। ३. यहाँ जाव शब्द 'मुसावाए' से लेकर 'मिच्छादसणसल्ल' तक १८ पापस्थानवाचक पदों का सूचक है। ४. 'जाव' पद 'मणुन्ने मणामे धेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे' इत्यादि द्वितीयान्त पाठ का सूचक है।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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