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________________ १९६] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के बाद, बोलते समय और बोलने से पूर्व भी मुझे ग्लानि खिन्नता होती है यावत् पूर्वोक्त गाड़ियों की तरह चलते और खडे रहते हए मेरी हड़ियों से खड-खड आवाज होती है। अतः जब तक मझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम है, जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर सुहस्ती (गन्थहस्ती) की तरह (या भव्यों के लिए शुभार्थी होकर) विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए श्रेयस्कर है कि इस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर कल प्रातःकाल कोमल उत्पलकमलों को विकसित करने वाले, क्रमशः पाण्डुरप्रभा से रक्त अशोक के समान प्रकाशमान, टेसू के फूल, तोते की चोंच, गुंजा के अर्द्धभाग जैसे लाल, कमलवनों को विकसित करने वाले, सहस्ररश्मि, तथा तेज से जाज्वल्यमान दिनकर सूर्य के उदय होने पर मैं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार यावत् पर्युपासना करके श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके, स्वयमेव पंचमहाव्रतों का आरोपण करके, श्रमण-श्रमणियों के साथ क्षमापना करके कृतादि (प्रतिलेखना आदि धर्म क्रियाओं में कुशल'कृत' या 'कृतयोगी', आदि पद से धर्मप्रिय, धर्मदृढ़, सेवासमर्थ आदि) तथारूप स्थविर साधुओं के साथ विपुलगिरि पर शनैः शनैः चढ़कर, मेघसमूह के समान काले, देवों के अवतरणस्थानरूप पृथ्वीशिलापट्ट की प्रतिलेखना करके, उस पर डाभ (दर्भ) का संथारा (संस्तारक) बिछाकर, उस दर्भ संस्तारक पर बैठकर आत्मा को संलेखना तथा झोषणा से युक्त करके, आहार-पानी का सर्वथा त्याग (प्रत्याख्यान) करके पादपोपगमन (वृक्ष की कटी हुई डाली के समान स्थिर रहकर) संथारा करके, मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ विचरण करूं।। इस प्रकार का सम्प्रेक्षण (विचार) किया और रात्रि व्यतीत होने पर प्रात:काल यावत् जाज्वल्यमान . सूर्य के उदय होने पर स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में आकर उन्हें वन्दनानमस्कार करके यावत् पर्युपासना करने लगे। ४९. 'खंदया!' इ समणे भगवं महावीरे खंदयं अणगारं एवं वयासी से नूणं तव खंदया! पुव्वरत्तावरत्त. जाव (सु. ४८) जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव (सु. १७) समुपजित्था— 'एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विपुलेणं तं चेव जाव (सु. ४८) कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु' एवं संपेहेसि, २ कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलंते जेणेव मम अंतिए तेणेव हव्वमागए। से नूणं खंदया! अढे समढे ? . हंता, अत्थि। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह। [४९] तत्पश्चात् 'हे स्कन्दक!' यो सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर ने स्कन्दक अनगार से इस प्रकार कहा—'हे स्कन्दक! रात्रि के पिछले पहर में धर्म जागरणा करते हुए तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि इस उदार यावत् महाप्रभावशाली तपश्चरण से मेरा शरीर अब कृश हो गया है, यावत् अब मैं संलेखना-संथारा करके मृत्यु की आकांक्षा न करके पादपोपगमन अनशन करूँ। ऐसा विचार करके प्रात:काल सूर्योदय होने पर तुम मेरे पास आए हो। हे स्कन्दक! क्या यह सत्य है ?' (स्कन्दक अनगार ने कहा-) हाँ, भगवन् ! यह सत्य है।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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