________________
द्वितीय शतक : उद्देशक-१]
[१९५ गुणरत्न (गुणरचन) संवत्सर तप जिस तप में गुण रूप रत्नों वाला सम्पूर्ण वर्ष बिताया जाए वह गुणरत्नसंवत्सर तप कहलाता है। अथवा जिस तप को करने में १६ मास तक एक ही प्रकार की निर्जरारूप विशेष गण की रचना (उत्पत्ति) हो. वह गणरचनसंवत्सर तप है। इस तप में १६ मही लगते हैं। जिनमें से ४०७ दिन तपस्या के और ७३ दिन पारणे के होते हैं। शेष सब विधि मूलपाठ में है।
उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत : तपोविशेषणों की व्याख्या-उदार—लौकिक आशारहित होने से उदार, विपुल–दीर्घकाल तक चलने वाला होने से विपुल, प्रदत्त-प्रमाद छोड़कर अप्रमत्ततापूर्वक आचरित होने से प्रदत्त प्रगृहीत-बहुमानपूर्वक आचरित होने से प्रगृहीत कहलाता है। उत्तम उत्तम पुरुषसेवित, या तम-अज्ञान से ऊपर। स्कन्दक द्वारा संलेखना-भावना, अनशन-ग्रहण, समाधि-मरण
४७. तेणं कालेणं २ रायगिहे नगरे जाव समोसरणं जाव परिसा पडिगया।
[४७] उस काले उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर में पधारे। समवसरण की रचना हुई। यावत् जनता भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर वापिस लौट गई।
४८. तए णं तस्स खंदयस्स अणगारस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंति धम्म जागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए जाव(सु. १७)समुप्पज्जित्था—एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं जाव (सु. ४६) किसे धमणिसंतए जाते जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवंजीवेणं चिट्ठामि, जाव गिलामि, जाव(सु.४६) एवामेव अहं पि ससहं गच्छामि, ससई चिट्ठामि, तं अस्थि ता मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे तं जावता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पल-कमलकोमलुम्मिल्लियम्मि अहापंडरे पभाए रत्तासोयप्पकासकिंसुय-सुयमुह-गुंजऽद्धरागसरिसे कमलागरसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते समणं भगवं महावीर वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता, समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाणि आरोवेत्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, तहारूवेहिं थेरेहिं कडाऽऽईहिं सद्धिं विपुलं पव्वयंसणियंदुरूहित्ता, मेघघणसन्निगासंदेवसन्निवातं पुढवीसिलावट्टयं पडिलेहित्ता, दब्भसंथारयं संथरित्ता, दब्भसंथारोवगयस्स संलेहणाझूसणाझूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, २ त्ता कल्लं पाउभायाए रयणीए जाव जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासति।
[४८] तदनन्तर किसी एक दिन रात्रि के पिछले पहर में धर्म-जागरण करते हुए स्कन्दक अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तन यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस (पूर्वोक्त) प्रकार के उदार यावत् महाप्रभावशाली तपःकर्म द्वारा शुष्क, रूक्ष यावत् कृश हो गया हूँ। यावत् मेरा शारीरिक बल क्षीण हो गया, मैं केवल आत्मबल से चलता हूँ और खड़ा रहता हूं। यहाँ तक कि बोलने
भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १२४-१२५