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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को सहता है। जहां कोई जानता हो, वहाँ एक रात्रि और कोई न जानता हो, वहाँ दो रात्रि तक रहे, इससे अधिक जितने दिन तक रहे, उतने दिनों के छेद या तप का प्रायश्चित्त गहण करे । प्रतिमाधारी मुनि चार प्रकार की भाषा बोल सकता है— याचनी, पृच्छनी, अनुज्ञापनी (स्थान आदि की आज्ञा लेने हेतु) और पृष्टव्याकरणी (प्रश्न का उत्तर देने हेतु) । उपाश्रय के अतिरिक्त मुख्यतया तीन स्थानों में प्रतिमाधारक निवास करे - ( १ ) अधः आरामगृह (जिसके चारों ओर बाग हो), (२) अधोविकटगृह (जो चारों ओर से खुला हो, किन्तु ऊपर से आच्छादित हो) और (३) वृक्षमूलगृह । तीन प्रकार के संस्तारक ग्रहण कर सकता है— पृथ्वीशिला, काष्ठशिला या उपाश्रय में पहले से बिछा हुआ तृण या दर्भ का संस्तारक । उसे अधिकतर समय स्वाध्याय या ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए। कोई व्यक्ति आग लगाकर जलाए या वध करे, मारे-पीटे तो प्रतिमाधारी मुनि को आक्रोश या प्रतिप्रहार नहीं करना चाहिए। समभाव से सहना चाहिए । विहार करते समय मार्ग में मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, सांड या भैंसा अथवा सिंह, व्याघ्र, सूअर आदि हिंस्र पशु सामने आ जाए तो प्रतिमाधारक मुनि भय से एक कदम भी पीछे न हटे, किन्तु मृग आदि कोई प्राणी डरता हो तो चार कदम पीछे हट जाना चाहिए।
प्रतिमाधारी मुनि को शीतकाल में शीतनिवारणार्थ ठंडे स्थान से गर्म स्थान में तथा ग्रीष्मकाल में गर्भ स्थान से ठंडे स्थान में नहीं जाना चाहिए, जिस स्थान में बैठा हो, वहीं बैठे रहना चाहिए। प्रतिमाधारी साधु को प्राय: अज्ञात कुल से और आचारांग एवं दशवैकालिक में बताई हुई विधि के अनुसार एषणीय कल्पनीय निर्दोष भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। छह प्रकार की गोचरी उसके लिए बताई गई है – १. पेटा, २. अर्धपेटा, ३. गोमूत्रिका, ४. पतंगवीथिका, ५. शंखावर्ता और ६ गतप्रत्यागता । प्रतिमाधारी साधु तीन समय में से किसी एक समय में भिक्षा ग्रहण कर सकता है— (१) दिन के आदिभाग में (२) दिन के मध्यभाग में और (३) दिन के अन्तिम भाग में। पहली प्रतिमा से सातवीं प्रतिमा तक उत्तरोत्तर एक-एक मास की अवधि और एक-एक दत्ति आहार और पानी की क्रमशः बढ़ाता जाए। आठवीं प्रतिमा सात दिनरात्रि की है, इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करके गाँव के बाहर जाकर उत्तानासन या पार्श्वसन से लेटना या निषद्यासन से बैठकर ध्यान लगाना चाहिए। उपसर्ग के समय दृढ़ रहे । मल-मूत्रादि वेगों को न रोके। सप्त अहोरात्रि की नौवीं प्रतिमा में ग्रामादि के बाहर जाकर दण्डासन या उत्कुटुकासन से बैठना चाहिए। शेष विधि पूर्ववत् है । सप्त अहोरात्र की दसवीं प्रतिमा में ग्रामादि से बाहर जाकर गोदोहासन, वीरासन या अम्बुकुब्जासन से ध्यान करे। शेष विधि पूर्ववत् । एक अहोरात्र की ग्यारहवीं प्रतिमा (८ प्रहर की) में चौविहार बेला करके ग्रामादि के बाहर जाकर दोनों पैरों को कुछ संकुचित करके हाथों को घुटने तक लम्बे करके कायोत्सर्ग करे। शेष विधि पूर्ववत् । एक रात्रि की बारहवीं प्रतिमा में चौविहार तेला करके ग्रामादि से बाहर जाकर एक पुद्गल पर अनिमेष दृष्टि स्थिर करके पूर्ववत् कायोत्सर्ग करना होता है । यद्यपि यह प्रतिमा जघन्य नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक के ज्ञान वाला कर सकता है, तथापि स्कन्द मुनि ने साक्षात् तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा से ये प्रतिमाएँ ग्रहण की थीं। पंचाशक में प्रतिमा ग्रहण करने पूर्व उतनी अवधि तक उसके अभ्यास करने तथा सबसे क्षमापना करके निःशल्य, निष्कषाय होने का उल्लेख
है ।
१.
(क) दशाश्रुतस्तकन्ध अ. ७ के अनुसार। (ख) हरिभद्रसूरि रचित पंचाशक, पंचा. १८, गा. ५, न (ग) विशेषार्थ देखें- आयारदसा ७ ( मुनि कन्हैयालालजी कमल)