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उपलब्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति में जो प्रश्नोत्तरशैली विद्यमान है, वह अतिप्राचीन प्रतीत होती है। अचेलक परम्परा के ग्रन्थ राजवार्तिक में अकलंकभट्ट ने व्याख्याप्रज्ञप्ति में इसी प्रकार की शैली होने का स्पष्ट उल्लेख किया है।
प्रस्तुत आगम में अनेक प्रकरण कथाशैली में लिखे गए हैं। जीवनप्रसंगों, घटनाओं और रूपकों के माध्यम से कठिन विषयों को सरस करके प्रस्तुत किया गया है। भगवान् महावीर को जहाँ कहीं कठिन विषय को उदाहरण देकर समझाने की आवश्यकता महसूस हुई, वहाँ उन्होंने दैनिक जीवनधारा से कोई उदाहरण उठा कर उत्तर दिया है। किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के साथ-साथ वे हेतु का निर्देश भी किया करते थे। जहाँ एक ही प्रश्न के एक से अधिक उत्तरप्रत्युत्तर होते, वहाँ वे प्रश्नकर्ता की दृष्टि और भावना को मद्देनजर रख कर तदनुरूप समाधान किया करते थे। जैसेरोहक अनगार के प्रश्न के उत्तर में स्वयं प्रतिप्रश्न करके भगवान् ने प्रत्युत्तर दिया है।
मुख्यरूप में यह आगम प्राकृत भाषा में या कहीं कहीं शौरसेनी भाषा में सरल-सरस गद्यशैली में लिखा हुआ है। प्रतिपाद्य विषय का संकलन करने की दृष्टि से संग्रहणीय गाथाओं के रूप के कहीं-कहीं पद्यभाग भी उपलब्ध होता है। कहीं पर स्वतंत्ररूप से प्रश्नोत्तरों का क्रम है, तो कहीं किसी घटना के पश्चात् प्रश्नोत्तरों का सिलसिला चला है।
प्रस्तुत आगम में द्वादशांगी-पश्चात्वर्ती काल में रचित राजप्रश्नीय, औपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, प्रश्नव्याकरण एवं नन्दीसूत्र आदि (में वर्णित अमुक विषयों) का अवलोकन करने का निर्देश या उल्लेख देख कर इतिहासवेत्ता विद्वानों का यह अनुमान करना यथार्थ नहीं है कि यह आगम अन्य आगमों के बाद में रचा गया है। वस्तुत: जैनागमों को लिपिबद्ध करते समय देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने ग्रन्थ की अनावश्यक बृहद्ता कम करने तथा अन्य सूत्रों में वर्णित विषयों की पुनरावृत्ति से बचने की दृष्टि से पूर्वलिखित आगमों का निर्देश-अतिदेश किया है। आगम-लेखनकाल में सभी आगम क्रम से नहीं लिखे गये थे। जो आगम पहले लिखे जा चुके थे, उन आगमों में उस विषय का विस्तार से वर्णन पहले हो चुका था, अत: उन विषयों की पुनरावृत्ति न हो, ग्रन्थगुरुत्व न हो, इसी उद्देश्य से श्री देवर्द्धिगणी आदि पश्चाद्वर्ती आगमलेखकों ने इस निर्देशपद्धति का अवलम्बन लिया था। इसीलिए यह आगम पश्चाद्ग्रथित है, ऐसा निर्णय नहीं करना चाहिए। वस्तुतः व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गणधर रचित ही है, इसकी मूलरचना प्राचीन ही है। अद्यावधि मुद्रित व्याख्याप्रज्ञप्ति
___ सन् १९१८-२१ में अभयदेवसूरिकृत वृत्तिसहित व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र धनपतसिंह जी द्वारा बनारस से प्रकाशित हुआ। यह १४वें शतक तक ही मुद्रित हुआ था।
_ वि.सं. १९७४-७९ में पण्डित बेचरदासजी दोशी द्वारा सम्पादित एवं टीका का गुजराती में अनूदित भगवतीसूत्र छठे शतक तक दो भागों में जिनागम-प्रकाशकसभा मुम्बई से प्रकाशित हुआ, तत्पश्चात् गुजरात विद्यापीठ तथा जैनसाहित्य प्रकाशन ट्रस्ट अहमदाबाद से सातवें से ४१वें शतक तक दो भागों में पं. भगवानदास दोशी द्वारा केवल मूल का गुजराती अनुवाद होकर प्रकाशित हुआ।
सन् १९३८ में श्री गोपालदाल जीवाभाई पटेल द्वारा गुजराती में छायानुवाद होकर जैनसाहित्य प्रकाशन समिति अहमदाबाद से भगवती-सार प्रकाशित हुआ। १. 'एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु उक्तम्......इति गौतमप्रश्ने भगवता उक्तम्।'
-तत्त्वार्थ. राजवार्तिक अ.४, सू. २६, पृ. २४५
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