________________
'जीव है या नहीं' इस प्रकार के अनेक प्रश्नों का निरूपण किया गया है। आचार्य बारसेन' के कथनानुसार इस आगम में प्रश्नोत्तरों के साथ ९६,००० छिन्न-छेदक नयों से प्रज्ञापनीय शुभ और अशुभ का वर्णन है।
निष्कर्ष यह है कि प्रस्तुत विराट् आगम में एक श्रुतस्कन्ध, १०१ अध्ययन, १०,००० उद्देशनकाल, १०,००० समुद्देशनकाल,३६,००० प्रश्नोत्तर, २,८८,००० पद और संख्यात अक्षर हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति की वर्णन परिधि में अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस और अनन्त स्थावर आ जाते हैं। व्यापक विवेचन-शैली
भगवतीसूत्र की रचना प्रश्नोत्तरों के रूप में हुई हैं। प्रश्नकर्ताओं में मुख्य हैं- श्रमण भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम। इनके अतिरिक्त माकन्दिपुत्र, रोह अनगार, अग्निभूति, वायुभूति आदि। कभी-कभी स्कन्दक आदि कई परिव्राजक, तापस एवं पार्वापत्य अनगार आदि भी प्रश्नकर्ता के रूप में उपस्थित होते हैं। कभीकभी अन्यधर्मतीर्थावलम्बी भी वाद-विवाद करने या शंका के समाधानार्थ आ पहुंचते हैं। कभी तत्कालीन श्रमणोपासक अथवा जयंती आदि जैसी श्रमणोपासिकाएं भी प्रश्न पूछ कर समाधान पाती हैं। प्रश्नोत्तरों के रूप में ग्रथित होने के कारण इसमें कई बार पिष्टपेषण भी हुआ है, जो किसी भी सिद्धान्तप्ररूपक के लिए अपरिहार्य भी है, क्योंकि किसी भी प्रश्न को समझाने के लिए उसकी पृष्ठभूमि बतानी भी आवश्यक हो जाती है।
जैनागमों की तत्कालीन प्रश्नोत्तर पद्धति के अनुसार प्रस्तुत आगम में भी एक ही बात की पुनरावृत्ति बहुत है, जैसे- प्रश्न का पुनरुच्चारण करना, फिर उत्तर में उसी प्रश्न को दोहराना, पुनः उत्तर का उपसंहार करते हुए प्रश्न को दोहराना। उस युग में यही पद्धति उपयोगी रही होगी।
एक बात और है- भगवतीसूत्र में विषयों का विवेचन प्रज्ञापना, स्थानांग आदि शास्त्रों की तरह सर्वथा विषयबद्ध, क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित पद्धति से नहीं है और न गौतम गणधर के प्रश्नों का संकलन ही निश्चित क्रम से है। इसका कारण भगवतीसूत्र के अध्येता को इस शास्त्र में अवगाहन करने से स्वतः ज्ञात हो जायेगा कि गौतम गणधर के मन में जब किसी विषय के सम्बन्ध में स्वतः या किसी अन्यतीर्थिक अथवा स्वतीर्थिक व्यक्ति का या उससे सम्बन्धित
वक्तव्य सुनकर जिज्ञासा उत्पन्न हुई। तभी उन्होंने भगवान् महावीर के पास जाकर सविनय अपनी जिज्ञासा प्रश्न के रूप | में प्रस्तुत की। अतः संकलनकर्ता श्री सुधर्मास्वामी गणधर ने उस प्रश्नोत्तर को उसी क्रम से, उसी रूप में ग्रथित कर लिया। अत: यह दोष नहीं, बल्कि प्रस्तुत आगम की प्रामाणिकता है।
इससे सम्बन्धित एक प्रश्न वृत्तिकार ने प्रस्तुत शास्त्र के प्रारम्भ में, जहाँ से प्रश्नों की शुरुआत होती है; उठाया है कि प्रश्नकर्ता गणधर श्री इन्द्रभति गौतम स्वयं द्वादशांगी के विधाता हैं। श्रुत के समस्त विषयों के पारगामी हैं, सब प्रकार के संशयों से रहित हैं। इतना ही नहीं, वे सर्वाक्षरसन्निपाती हैं, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यायज्ञान के धारक हैं, एक दृष्टि से सर्वज्ञ-तुल्य हैं, ऐसी स्थिति में संशययुक्त सामान्यजन की भांति उनका प्रश्न पूछना कहाँ तक युक्तिसंगत है? इसका समाधान स्वयं वृत्तिकार ही देते हैं-(१) गौतमस्वामी कितने ही अतिशययुक्त क्यों न हों, छमस्थ होने के नाते | उनसे भूल होना असम्भव नहीं। (२) स्वयं जानते हुए भी, अपने ज्ञान की अविसंवादिता के लिए प्रश्न पूछ सकते हैं। (३) स्वयं जानते हुए भी अन्य अज्ञानिजनों के बोध के लिए प्रश्न पूछ सकते हैं। (४) शिष्यों को अपने वचन में विश्वास जमाने के लिए भी प्रश्न पूछा जाना सम्भव है। (५) अथवा शास्त्ररचना की यही पद्धति या आचारप्रणाली है। इनमें से एक या अनेक कुछ भी कारण हों, गणधर गौतम का प्रश्न पूछना असंगत नहीं कहा जा सकता।
[२०]