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वि.सं. २०११ में श्री मदनकुमार द्वारा भगवतीसूत्र १ से २० शतक तक का केवल हिन्दी अनुवाद श्रुतप्रकाशन | मन्दिर, कलकत्ता से प्रकाशित हुआ।
___इसी प्रकार वीर संवत् २४४६ में आचार्य श्री अमोलकऋषिजी म. कृत हिन्दी अनुवादयुक्त भगवतीसूत्र हैदराबाद | से प्रकाशित हुआ।
सन् १९६१ में आचार्य घासीलालजी महाराज कृत भगवतीसूत्र-संस्कृतटीका तथा उसके हिन्दी-गुजराती अनुवाद श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट द्वारा प्रकाशित हुए।
जैन संस्कृति रक्षक संघ सैलाना द्वारा प्रकाशित एवं पं. घेवरचन्दजी बांठिया, 'वीरपुत्र' द्वारा हिन्दी-अनुवाद एवं विवेचन सहित सम्पादित भगवतीसूत्र ७ भागों में प्रकाशित हुआ।
सन् १९७४ में पं.बेचरदास जीवराज दोशी द्वारा सम्पादित 'वियाहपण्णत्तिसुत्तं' मूलपाठ-टिप्पणयुक्त श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित हुआ है। इसमें अनेक प्राचीन-नवीन प्रतियों का अवलोकन करके शुद्ध मूलपाठ तथा सूत्रसंख्या का क्रमशः निर्धारण किया गया है। __व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के इतने सब मुद्रित संस्करणों में अनेक संस्करण तो अपूर्ण ही रहे, जो पूर्ण हुए उनमें से कई | अनुपलब्ध हो चुके हैं। जो उपलब्ध हैं वे आधुनिक शिक्षित तथा प्रत्येक विषय का वैज्ञानिक आधार ढूंढने वाली | जैनजनता एवं शोधकर्ता विद्वानों के लिए उपयुक्त नहीं थे। अतः न तो अतिविस्तृत और न अतिसंक्षिप्त हिन्दी विवेचन तथा तुलनात्मक टिप्पणयुक्त भवगतीसूत्र की मांग थी। क्योंकि केवल मूलपाठ एवं संक्षिप्त सार से प्रस्तुत आगम के गूढ़ रहस्यों को हृदयंगम करना प्रत्येक पाठक के बस की बात नहीं थी। भगवती के अभिनव संस्करण की प्रेरणा
इन्हीं सब कारणों से श्रमणसंघ के युवाचार्य आगममर्मज्ञ पण्डितप्रवर मुनिश्री मिश्रीमलजी म. मधुकर' ने तथा श्रमणसंघीय प्रथम आचार्य आगमरत्नाकर स्व. पूज्य श्रीआत्मारामजी म. की जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में उनके प्रशिष्य जैन विभूषण परमश्रद्धेय गुरुदेव श्री पदमचन्द भण्डारीजी महाराज ने व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का अभिनव सर्वजनग्राह्य सम्पादन करने की बलवती प्रेरणा दी। इसके पश्चात् इसे प्रकाशित करने का बीड़ा श्रीआगमप्रकाशनसमिति, ब्यावर ने उठाया; जिसका प्रतिफल हमारे सामने है। प्रस्तुत सम्पादन की विशेषता
प्रस्तुत सम्पादन की विशेषता यह है कि इसमें पाठों की शुद्धता के लिये श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से | | प्रकाशित शुद्ध मूलपाठ, टिप्पण, सूत्रसंख्या, शीर्षक, पाठान्तर एवं विशेषार्थ से युक्त 'वियाहपण्णत्तिसुत्तं' का अनुसरण किया गया है। प्रत्येक सूत्र में प्रश्न और उत्तर को पृथक्-पृथक् पंक्ति में रखा गया है। प्रत्येक प्रकरण के शीर्षकउपशीर्षक दिए गए हैं, ताकि पाठक को प्रतिपाद्य विषय के ग्रहण करने में आसानी रहे। प्रत्येक परिच्छेद के मूलपाठ देने के बाद सूत्रसंख्या देकर क्रमशः मूलानुसार हिन्दी-अनुवाद दिया गया है। जहाँ कठिन शब्द हैं, या मूल में संक्षिप्त शब्द हैं, वहाँ कोष्ठक में उनका सरल अर्थ तथा कहीं-कहीं पूरा भावार्थ भी दे दिया गया है। शब्दार्थ के पश्चात् विवेच्यस्थलों का हिन्दी में परिमित शब्दों में विवेचन भी दिया गया है। विवेचन प्रसिद्ध वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरिरचित वृत्ति को | केन्द्र में रख कर किया गया है। वृत्ति में जहाँ अतिविस्तार है वहाँ उसे छोड़कर सारभाग ही ग्रहण किया गया है। जहाँ
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