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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तीसरे मास में उपर्युक्त विधि के अनुसार निरन्तर तेले-तेले पारणा करना। इसी विधि के अनुसार चौथे मास में निरन्तर चौले-चौले (चार-चार उपवास से) पारणा करना। पाँचवें मास में पचौले-पचौले (पांच-पांच उपवास से) पारणा करना। छठे मास में निरन्तर छह-छह उपवास करना। सातवें मास में निरन्तर सात-सात उपवास करना। आठवें मास में निरन्तर आठ-आठ उपवास करना। नौवें मास में निरन्तर नौ-नौ उपवास करना। दसवें मास में निरन्तर दस-दस उपवास करना। ग्यारहवें मास में निरन्तर ग्यारह-ग्यारह उपवास करना। बारहवें मास में निरन्तर बारह-बारह उपवास करना। तेरहवें मास में निरन्तर तेरह-तेरह उपवास करना। चौदहवें मास में निरन्तर चौदह-चौदह उपवास करना। पन्द्रहवें मास में निरन्तर पन्द्रह-पन्द्रह उपवास करना और सोलहवें मास में निरन्तर सोलह-सोलह उपवास करना। इन सभी में दिन में उत्कुटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख करके आतापनाभूमि में आतापना लेना, रात्रि के समय अपावृत (वस्त्ररहित) होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना।
४५. तए णं से खंदए अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तं अहाकप्पं जाव आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, २ समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, २ बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्टम-दसम-दुवालसेहिं मासऽद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरति।
[४५] तदनन्तर स्कन्दक अनगार ने (उपर्युक्त विधि के अनुसार) गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण की सूत्रानुसार, कल्पानुसार यावत् आराधना की। इसके पश्चात् जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ वे आए और उन्हें वन्दना-नमस्कार किया। और फिर अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पचौला, मासखमण (मासिक उपवास), अर्द्धमासखमण इत्यादि विविध प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे।
४६. तए णं से खंदए अणगारे तेणं ओरालेणं, विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धण्णेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महाणुभागेणं तवोक्कम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडयाभूए किसे धमणिसंतए जाते यावि होत्था, जीवंजीवेण गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाति, भासं भासिस्सामीतिं गिलाति; से जहा नाम ए कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा पत्ततिलभंडगसगडिया इ वा एरंडकट्ठसगडिया इ वा इंगालसगडिया इ वा उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससदं गच्छइ, ससई चिट्ठइ, एवामेव खंदए वि अणगारे ससइं गच्छइ, ससदं चिट्ठइ, उवचिते तवेणं, अवचिए मसं-सोणितेणं, हुयासणे विव भासरासिपडिच्छन्ने, तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अतीव २ उवसोभेमाणे २ चिट्ठइ।
[४६] इसके पश्चात् वे स्कन्दक अनगार उस (पूर्वोक्त प्रकार के) उदार, विपुल, प्रदत्त (या प्रयत्न), प्रगृहीत, कल्याणरूप शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, श्रीयुक्त (शोभास्पद), उत्तम, उदग्र (उत्तरोत्तर वृद्धियुक्त), उदात्त (उज्ज्वल), सुन्दर, उदार और महाप्रभावशाली तपःकर्म से शुष्क हो गए, रूक्ष हो