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द्वितीय शतक : उद्देशक-१]
[१९१ की यथावत् आराधना की। तत्पश्चात् प्रथम सप्तरात्रि-दिवस की, द्वितीय सप्तरात्रि दिवस की एवं तृतीय सप्तरात्रि-दिवस की, फिर एक अहोरात्रि की तथा एकरात्रि की, इस तरह बारह भिक्षुप्रतिमाओं का सूत्रानुसार यावत् आज्ञापूर्वक सम्यक् आराधन किया।
४३. तए णं से खंदए अणगारे एगराइयं भिक्खुपडिमं अहासुत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, २ समणं भगवं महावीरं जाव नमंसित्ता एवं वदासी-इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।
अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं०।
[४३] फिर स्कन्दक अनगार अन्तिम एकरात्रि की भिक्षुप्रतिमा का यथासूत्र यावत् आज्ञापूर्वक सम्यक् आराधन करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आकर उन्हें (श्रमण भगवान् महावीर को) वन्दना-नमस्कार करके यावत् इस प्रकार बोले 'भगवन्! आपकी आज्ञा हो तो मैं 'गुणरत्नसंवत्सर' नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरण करना चाहता हूँ।'
भगवान् ने फरमाया—'तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो; धर्मकार्य में विलम्ब न करो।'
४४. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे जाव नमंसित्ता गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपजित्ताणं विहरति।
तं जहा–पढम मासं चउत्थं चउत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण यादोच्चं मासं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं० दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। एवं तच्चं मासं अट्ठमं अट्ठमेणं, चउत्थं मासं दसमंदसमेणं, पंचमं मासं बारसमं बारसमेणं, छठें मासं चोद्दसमं चोइसमेणं, सत्तमं मासं सोलसमं २, अट्ठमं मासं अट्ठारसमं २, नवमं मासं वीसतीमं २, दसमं मासं बावीसतिमं २, एक्कारसमं मासं चउव्वीसतिमं २, बारसमं मासं छव्वीसतिमं २, तेरसमं मासं अट्ठावीसतिमं २, चोद्दसमं मासं तीसतिमं २, पन्नरसमं मासं बत्तीसतिमं २,, सोलसमं मासं चोत्तीसतिमं २, अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेणं।
[४४] तत्पश्चात् स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके यावत् उन्हें वन्दनानमस्कार करके गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण स्वीकार करके विचरण करने लगे।
__ जैसे कि—(गुणरत्नसंवत्सर तप की विधि) पहले महीने में निरन्तर (लगातार) उपवास (चतुर्थभक्त तपःकर्म) करना, दिन में सूर्य के सम्मुख (मुख) दृष्टि रखकर आतापनाभूमि में उत्कुटुक आसन से बैठकर सूर्य की आतापना लेना और रात्रि में अपावृत (निर्वस्त्र) होकर वीरासन से बैठना एवं शीत सहन करना। इसी तरह निरन्तर बेले-बेले (छट्ठ-छट्ठ) पारणा करना। दिन में उत्कुटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख रखकर आतापनाभूमि में सूर्य की आतापना लेना, रात्रि में अपावृत होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना। इसी प्रकार