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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इंगितमरण यह भी पण्डितमरण है, किन्तु भक्तप्रत्याख्यानमरण का ही विशिष्ट प्रकार होने से उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया।
अपडिक्कम्मे-सपडिक्कम्मे-अप्रतिकर्म और सप्रतिकर्म, ये क्रमशः पादपोपगमन और भक्त-प्रत्याख्यानमरण के ही लक्षणरूप हैं। पादपोप गमनमरण में चारों प्रकार के आहार का त्याग अनिवार्य है, साथ ही वह नियमतः अप्रतिकर्म-शरीर संस्काररहित होता है; जबकि भक्तप्रत्याख्यान सप्रतिकर्म–शरीर की सारसंभाल करते हुए होता है।
वियडभोई-वियदृभोई : तीन अर्थ—(१) विकट-भोजी-अचित्त भोजी, (२) व्यावृत्तभोजी सूर्य के व्यावृत्त-प्रकाशित होने पर भोजनकर्ता प्रतिदिन दिवसभाजी और (३) व्यावृत्तभोजी-अनैषणीय आहार से निवृत्त अर्थात् एषणीय आहारभोक्ता।। स्कन्दक द्वारा धर्मकथाश्रवण, प्रतिबोध, प्रव्रज्याग्रहण और निर्ग्रन्थधर्माचरण
३२. [१] एत्थ णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, २ एवं वदासी इच्छामि णं भंते! तुब्भं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामेत्तए।
[२] अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।
[३२-१] (भगवान् महावीर के इन (पूर्वोक्त) वचनों से समाधान पाकर) कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को सम्बोध प्राप्त हुआ। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके यों कहा—'भगवन् ! मैं आपके पास केवलिप्ररूपित धर्म सुनना चाहता हूँ।'
[३२-२] हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब मत करो।
३३. तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ। धम्मकहा भाणियव्वा।
। [३३] इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को और उस बहुत बड़ी परिषद् को धर्मकथा कही। (यहाँ धर्मकथा का वर्णन (औपपातिक सूत्र के अनुसार) करना चाहिए।)
३४. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुठे जा हियए उट्ठाए उठेइ, २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, २ एवं वदासी सहहामि णं भंते! निग्गथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, अब्भुढेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते!, तहमेयं भंते!, अवतहमेयं भंते!, असंद्दिद्धमेयं भंते!, इच्छियमेयं भंते!, पडिच्छियमेयं भंते!, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते!, से जहेयं तुब्भे वदह त्ति कटु समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, २ उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, २ तिदंडं च कुंडियं १. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्रांक ११८, (ख) भगवती. मू.पा.टि.भा. १, पृ.८१, (ग) भगवती प्रमेयचन्द्रिका टीका
भा. २ पृ. ५५३ (घ) आचारांग श्रु.१ अ. ९ में, उत्तरा. २/४, तथा समवायांग ११ में 'वियड' शब्द का यही अर्थ है।